कुमारी अपर्णा
शोध छात्रा
मगध विश्वविद्यालय , बोध गया, बिहार
भारतीय लोकतंत्र के हिन्दी कथा-साहित्य में मैत्रेयी पुष्पा स्त्री-लेखन परंपरा का वह महत्वपूर्ण नाम है, जिसने अपने रचनात्मक लेखन से महिलाओं के लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए संघर्ष किया है। उन्होंने बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के लोकतांत्रिक भारत में स्त्रियों की स्थिति और अवस्था का जीवंत दृष्यांकन किया है। गुलाम भारत में 30 नवम्बर 1944 को अलीगढ के सकुर्रा गाॅव में जन्म लेने वाली मैत्रीय पुष्पा का रचना-काल आजाद भारत रहा है। आजाद भारत में पाॅच दशक तक रचनारत रहने वाली हिन्दी लेखिका मैत्रयी पुष्पा ने अपनी लेखनी से हिन्दी साहित्य के कथा-कोष का विस्तार किया है। उनके महत्वपूर्ण उपन्यास हैं :- गुनाह-बेगुनाह, कही इसुरी फाग, त्रिया-हठ, बेतवा बहती रही, इद्न्नम, चाक, झूलानट, अल्मा कबुतरी, विजन और अगनपाॅखी है। मैत्रयी की कहानियों का अनेक संग्रह प्रकाषित है, जिसमें फाइटर की डायरी, सम्पूर्ण कहानियाॅ अब तक, दस प्रतिनिधि कहानियाॅ, पियारी का सपना, गोमा हॅसती है, ललमिनियाॅ और चिन्हार नामक कहानी संग्रह प्रकाशित हैं। उन्होंने ‘कस्तुरी कुंडली बसै’ और ‘गुडिया भीतर गुडिया’ नाम से दो आत्मकथा लिखी है। उन्होंने ‘मन्दाक्रांता’ नामक नाटक भी लिखा है। मैत्रयी ने अपनी कहानी ‘फैसला’ पर टेलीफिल्म भी तैयार किया है, जिसका शीर्षक है-‘बासुमती की चिटठी’। मैत्रयी पुष्पा ने नारी समस्या को केन्द्र में रखकर अनेक आलेख प्रस्तुत किये हैं, जो इन संग्रहों में उपलब्ध हैं- खुली खिडकियाॅ’, सुनो मालिक सुनो’, चर्चा हमारी, आवाज, और तब्दील निगाहें’। हिन्दी साहित्य को अपनी विपुल रचना से समृद्ध करने वाली लेखिका मैत्रीय पुष्पा को अनेक साहित्य-सम्मान से नवाजा गया। मैत्रयी पुष्पा को सर्वप्रथम साहित्य अकादमी ने 1991 ई0 में ‘साहित्य कीर्ति सम्मान’ से सम्मानित किया है। सन् 1993 में उन्हें ‘फैसला’ कहानी के लिए ‘कथा पुरस्कार’ प्रदान किया गया।
वे महात्मा गाॅधी सम्मान, सरोजनी नायडू पुरस्कार सहित सार्क देशों से साहित्य विधा में सम्मान प्राप्त कर चुकी हैं। स्त्री के अस्तित्व और अस्मिता संकट के अनेक दुर्लभ दृश्य हिन्दी साहित्य ही नहीं, विश्व साहित्य में सर्वत्र मिल जाएगे। हिन्दी साहित्य में नारी की स्थिति और अवस्था का कारुणिक चित्रण मिलता है। नारी जीवन के सच को दिखाने के प्रयास में किये गये दृश्यांकन में पुरुष रचनाकारों का भी अमूल्य योगदान है, लेकिन स्त्री-लेखन ने इसमें त्वरा के संग विश्वसनीयता भी पैदा किया। यूॅ तो साहित्य में नारी हमेशा से केन्द्र में रही है, लेकिन उसकी स्थिति एक पात्र की होती थी। अब वह स्वंय लेखक की भूमिका में है और बेबाकी से लिख रही है। इसलिए आज के बदले हालात में साहित्य के सौंदर्यशास्त्र के सामने भी नवीनता की संभावना जगी है।
मैत्रेयी पुष्पा की रचनाओं का कथा-काल भारतीय उपमहाद्वीप के आजादी पूर्व लगभग बीसवीं सदी के चैथे दशक से आरम्भ होकर 21 वीं सदी के सरहद को पार करती है। आधी सदी को अपने कथा-काल के रुप में समेटने का भगीरथ प्रयास मैत्रेयी ने किया है। मैत्रेयी ने अपनी रचनाओं में जितने बङे कथा-काल को समेटा है, वह भारतीय इतिहास का एक बङा और महत्वपूर्ण काल-खंड है। आजादी के पूर्व से शुरु होकर आजाद भारत के नेहरु-युग, इन्दिरा-युग और बाद के दिनों को भी अपना कथांष बनाया है। इस लम्बी अवधि में भारत गुलामी से आजादी, पुनर्जागरण से भारत-निर्माण, लोकतंत्र से समाजवाद, समाजिक से आर्थिक प्रगति तक का नारा दे चुका है। जमींदारी-प्रथा के क्रूर यथार्थ को झेलने के बाद किसानों को लगान मुक्ति का सुख तक, नारी-शोषण के जालिम तरीकों से बेटी पढाओ, बेटी बचाओ के नारे तक, गोरो के आतंक से आजाद देश के दारोगा के जुल्मोसितम तक फैला मैत्रेयी की आत्मकथाओं का कथा-काल भारतीय समाज के समाजशास्त्रीय विश्लेषण के लिए उपयोगी है।
लोकतांत्रिक देश भारत में नारी को संवैधानिक स्तर पर मानवीय और लोकतांत्रिक अधिकार प्रदान किये गये हों, लेकिन सामाजिक स्तर पर आज भी वह दोयम दर्जे की नागरिकता को जी रही है, जबकि भारतीय समाज भी 21वीं सदी के दूसरे दषक में प्रवेश कर गया है। यदि हम स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे लोकतांत्रिक अधिकारों की बात करें तो आज भी भारतीय नारी के बहुसंख्यक भाग को यह अधिकार नसीब नहीं है। आज भी उसे पुरुष के वर्चस्ववादी प्रवृति का शिकार होना पडता है। आज भी नारी के सामने धर्म, संस्कृति और समाज के अनेक बंधन हैं, जो उसके समुचित विकास में व्यवधान है। समान नागरिकता और मानव होने के समस्त अधिकार की अपेक्षा आज भी भारतीय नारी के अधिसंख्यक की जरुरत है। मैत्रेयी एक स्त्री होने के नाते वह समस्त अधिकार समान भाव से चाहती हैं, जो भारतीय लोकतंत्र में पुरुषों को मिले हुए हैं। मैत्रेयी स्त्री की स्वतंत्रता और बंधुत्व के अधिकार को भी अक्षुण्ण रखना चाहती है। वह मनुष्य होने के नाते जीने का अधिकार चाहती है। वह समान अधिकार के तहत् सम्मान भी चाहती है। वह सुहाग सेज से लेकर संसद तक अपनी भागीदारी देखना चाहती है। वह प्यार करने और प्यार पाने का अधिकार पाना चाहती है। वह उस सभी सुख, सुविधा और सम्पत्ति पर समान अधिकार चाहती है, जो मनुष्य होने के नाते पुरुष को प्राप्त है। वह अभिव्यक्ति की आजादी चाहती है। वह समान धरातल पर भावों का संम्प्रेषण चाहती है। वह, एक स्त्री होने के नाते घर-परिवार से लेकर समाजिक-आर्थिक व्यवस्था में हिस्सेदारी चाहती है। मैत्रेयी अपनी इसी चाहत को चिंतन के तहत् रचनात्मक कृति के रुप में पेश करती हैं।
मैत्रेयी ने अपनी रचना में स्त्री के माॅ, बेटी, पत्नी, साथी और प्रेमिका रुप की पीडाओं का दर्शन कराया है। उन्होंने भारतीय समाज में नारी की स्थिति और अवस्था की विसंगतियों का दृष्याकंन किया है। उसने स्त्री-पुरुष संबंधों की पडताल पूरी सामाजिक व्यवस्था के ताना-बाना को ध्यान में रखकर किया है। उसने स्त्री के चारो तरफ फैले सामाजिक-पारिवारिक अवरोधों को दिखया है और स्त्री को घेरनेवाले अनुष्ठानों और रिवाजों की पोल खोलकर रख दी है। मैत्रेयी ने विवाह बंधन की विसंगतियों को भी उजागर किया है। उन्होंने उन परंपराओं और मान्यताओं का पर्दाफास किया है, जो स्त्री जीवन को लाचार बनाता है। वे उन प्रथाओं को सामने लाती हैं, जिसने नारी जीवन को नारकीय बना दिया है। मैत्रेयी पुष्पा ने स्त्री-विरोधी प्रथाओं जैसे सती-प्रथा और दहेज-प्रथा का विरोध किया है। वह भ्रूणहत्या से लेकर गुलाम बनानेवाले दर्शन तक को स्त्री विरोधी मानती है। मैत्रेयी की रचनाओं में तत्कालीन भारतीय समाज में व्याप्त तमाम् कुरीतियों का चित्रांकन मिलता है।सती-प्रथा, बाल-विवाह, अनमेल विवाह, रेप, ग्रूप रेप जैसे संगीन अपराध और प्रथा एवं परंपरा के नाम पर तमाम तरह की कुरीतियाॅ फैली नजर आती है। ऐसी तमाम सामाजिक समस्या स्त्री जीवन को बुरी तरह प्रभावित करती नजर आती है।
यह सच है कि आधुनिक हिन्दी लेखिकाओं की रचनायें चाहे-अनचाहे पुरुषवादी सामंती भारतीय समाज के मूल्यों, मान्यताओं, परंपराओं और रुढियों से जूझती नजर आती है। वह हर जगह मर्दवादी सोच से लङती नजर आती है। यह पुरुष उसे पिता, पति, पुत्र, भाई और साथी के रुप में मिलता है। पुरुष वर्चस्व को चुनौती देती स्त्रियों की रचनाओं ने हिन्दी जन और हिन्दी आलोचना को पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया। वस्तुतः पुरुष वर्चस्व को चुनौती समानता के अधिकार से उत्पन्न हुआ है। स्त्रियों ने भारतीय प्रजातंत्र के नागरिक अधिकार और कर्तव्य को अपनाने की कोशिश की है। जहाॅ कहीं इस नागरिक अधिकार और कर्तव्य का हनन हुआ है, वहाॅ अभिव्यक्ति भी तल्ख हो गयी है।