डी0 एन0 श्रीवास्तवा (पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता)
न जाने क्यों आज मेरे दिल पर एक बोझ सा लग रहा है। आँखें नम हैं और दिल उदास। ऐसा लग रहा है जैसे कुछ गुम हो गया हो। कोई मेरी जि़न्दगी से बहुत दूर निकल गया हो। और उसे हमसे जुदा करने वाला मेरे सीने में तीर घोंप रहा हो। मेरी उदासी पर ठहाके मारकर हँस रहा हो। मेरे माथे पर बनी चिन्ता की लकीरों को देख हर पल मुस्कुरा रहा हो। उसे मेरी हार और अपनी जीत पर भारी खुषी मिल रही हो। जिधर देखो अपने ऊपर आघात होता नज़र आ रहा। दिमाग में एक अजीब सी उल्झन है। अपना कछ खोया खोया सा लग रहा है। चारों तरफ मेरे अपने कोई अनजाने खतरे में घिरे दिख रहे हैं। दीपावली की इस चकाचैंध कर देने वाली रौषनी में भी घनघोर अमावस्या से भी भयावह अंधकार नज़र आ रहा है। मदद को नज़रें जिनपर उम्मीद लगाई बैठी है वो सब कुछ जान कर भी अनजान बने हुए हैं। इसी ऊहापोह में मन इधर उधर भटक रहा है।
आखिर ऐसा क्या है? मेरे मन में इतना डर किस कारण है? किस बात का भय नज़र आ रहा? किस षंका में मन डूबता जा रहा? क्या वजह है कि इस जगमगाती रौषनी के दर्मयान अमावस्या जैसी काली रात नज़र आ रही हैं? दीपावली के इस अति पावन पर्व पर मन घबरा क्यों रहा? कौन सा संकट नज़र आ रहा? किस ऊहापोह में मन भटक रहा? धन की देवी लक्ष्मी को रिझाने के लिए आए इस त्योहार में कुछ करने का मन क्यों नहीं हो रहा? दिल बुझा बुझा क्यों है? दिल से जो ये आवाज़ आ रही है वो आखिर किस खतरे की ओर संकेत है? रह रहकर दिमाग किसी खतरे से बचने के ऊपाय ढूँढने क्यों चल पड़ता है?
खिन्न मन से सोचते सोचते मैं किसी वीरान जगह पर बैठ गया। मन पर किसका जोर है? कौन कर सका मन पर काबू? कुछ ही पलों में मेरा मन छलांगें लगाता पहुँच गया मेरे बचपन के दिनों में। दीपावली का पर्व। माँ महीनों पहले से ही दीपावली का पर्व मनाने को व्याकुल रहती। पूरे घर की साफ-सफाई करती करवाती। रंग रोगन करवाती। नये नये सामान खरीदकर लाती। घर को सजाती। कोने कोने के गर्द निकालती। फर्ष पर ऐपन बनाती। लक्ष्मी पादुका – पदों के निषान बनाती। चीनी के खिलौने लाती। कुम्हारों के घर के चक्कर लगाती। कभी दीयों के लिए तो कभी हठरी के लिए। कभी लक्ष्मी गणेश की मूर्ती के लिए तो कभी मिट्टी से बने खिलौनों के लिए। घर तो घर बाहर भी समूचे वातावरण में मिट्टी की भीनी भीनी सोंधी खुषबू मन में घर कर जाया करती। हम, भईयों और दोस्तों के साथ मिलकर मिट्टी के घरोंदे बनाते। उसपर सुन्दर सा रंग लगाते। सजा संवारकर उसमें दीये लगाते। माँ कहती थी जिसका घर जितना सुन्दर, साफ और आकर्शक बनेगा लक्ष्मी माता उसी के घर में आएगी। इसी सुन्दर और आकर्शक बनाने की होड़ में, दूसरे से अच्छा और आकशर्क बनाने की ललक में हम दिन रात उसे सजाने संवारने में लगे रहते। इससे हमारे अन्दर प्रतिस्पर्धा की भावना भी बनी रहती रहती।
फिर कब छोटी दीपावली आ जाती पता ही नहीं चलता था। माँ मुझे और मेरे भाईयों को पुकारती रहती ”बेटा इधर आओ, इन दीयों को खिडकी पर रख दो और इनको छज्जों पर सजा दो और गेट पर और बाहर के दरवाज़े पर रखना न भूलना …… अरे सुनो कहीं कोई कोना रह तो नहीं गया वहाँ देख लो …. दीया रख दो। और जब सभी जगहों पर दीये रख जाते तो फिर ”बेटा जरा दीयों में देख लेना तेल कम हो गया हो तो तेल डाल देना। बŸिा छोटी हो रही हो तो बढ़ा देना। और सुनो ….“ बोलते बोलते थकती भी नहीं थी। घर घर में बच्चे ”चीनी के खिलौने, चीने के खिलौने…“ की रट लगाए रहते थे। घर में बहनें, भाभियाँ, लक्ष्मी-गणेश पूजन की तैयारियों में जुटी रहती थीं। फूल माला और अषोक के पŸाों से पूरा घर सजाती थीं। बढि़या बढि़या पकवान बनाती थीं। मिठाई बनाती थी।
फिर सब मिल-जुलकर लक्ष्मी पूजन के लिए बैठते थे। माँ बाबूजी पूजन करते और हम सब उनके साथ होते थे। लक्ष्मीजी की आरती गाते। माँ माता लक्ष्मी को पकवान और घर की बनी मिठाई का भोग लगाती। फिर हम सब पठाके जलाते। रंगीन रोषनी में मन गद गद हो जाता था। लक्ष्मी पूजा के पश्चात माँ पास पड़ोस और रिष्तेदारों में प्रसाद देने और दीपावली मिलन को जाती थी। उन्हें भेंट स्वरूप मिठाई और प्रसाद देकर आती थी।
पर अब नहीं दिखती कही दीपावली की वो धूम। न साफ सफाई का वो दृष्य। न सजावट की वो ललक। रंग रोगन भी कहीं कहीं होता नज़र आता है। इक्के दुुक्के लोग ही नये सामान खरीदकर घर लाते हैं। वो भी षायद मजबूरी में। धनतेरस के दिन। कुछ लोग तो षायद अपना बाकी खर्च रोक कर धनतेरस के दिन नया सामान खरीद लेते हैं क्योंकि ऐसी धारणा बनी हुई है कि धनतेरस के दिन नया सामान खरीदने से माँ लक्ष्मी प्रसन्न होती है। अब कहाँ दिखते हैं मिट्टी के दीये? अब नहीं दिखते मिट्टी के खिलौने। छोटी दीवाली का तो जैसे रिवाज़ ही लुप्त हो चला है। अब तो दीपावली के दिन भी लोग अपने कारोबार में ही चिपके रहते हैं।
पर हाँ, अब जो दिखता है उसी से तो मुझे डर लगता है। अब दिखता है पेरिस प्लास्टर के खिलौने। लक्ष्मी गणेश की मूर्ति भी पेरिस प्लास्टर की बनी होती है। और चीन से आती है। कहते हैं मिट्टी की बनी मूर्ति ही पूजने योग्य होती हैं। दीयों के स्थान पर बिजली के बŸिायों की लड़ी। छत, छज्जे, मुँडेर और खिड़कियों पर मिटटी के दियों में टिमटिमाती वो सुंदर रौषनी अब नदारत है। अब चीनी के खिलौने की जगह ले चुका है बिजली से चलने वाली चीनी बŸिायों की लड़ी। खील, बताषे, चीनी के खिलौने और दूध से बनी मिठाइयों का ”गुजरा हुआ जमाना, आता नहीं दोबारा“ अब जैसे सत्यार्थ होे रहा। दीवाली मिलन की जगह अब दिखते हैं चीनी बŸाी, चीनी रौषनी और भारी भरकम चीनी उपहारों से भरे ”दीपावली मेले“। जहाँ नज़र उठाओ उपहार में देने के लिये चीनी सामान ही मिलता है। मानो भारत में अब दीपावली के इस पुन्य और पावन बेला पर भारत की संस्कृति सिस्कियाँ भरती दम तोड़ रही हो – मिट्टी के दीयों के रोषनी की जगमगाहट के स्थान पर पूरा भारत अपनी परंपरा आौर संस्कृति को किनारे धकेल चीनी रौष्नी में सराबोर हैं। चारों ओर नज़र आती है चीनी बŸिायों की जगमगाहट। जैसे हम दीपावली नहीं चीन की कामयाबी का जष्न मना रहे हों। जी हाँ, भारत के बाजार में स्वदेषी छोड़ चीनी सामानों का कब्जा हो चुका है।
वहीं दूर बैठे कुम्हार – कुम्हारन। चीनी माल से भरे बाज़ार में आज भी ढो रहे भारत की परंपरा और संस्कृति। इन लोगों को जैसे तड़ी पार कर दिया हो। इनकी दुकान तक भी आना आज जैसे लोग अपनी तौहीन समझते हैं। दूर से ही निकल जाते हैं। बच्चों के जि़द करने पर ”बेटे वो कुछ खास नहीं मिट्टी के दीये और खिलौने बेच रहा है“ ये कहकर टाल देते हैं। मानो मिट्टी के दीये और खिलौने बनाकर उसने कोई जुर्म कर दिया हो। अपने हाथों से मिट्टी को तराषकर बनाए मुट्ठी भर दियांे के खरीदारों की पथ निहारती आँखें। दीये के ग्राहक की राह देखते देखते आँखें तरस गईं। दीया और सुन्दर अनमोल मिट्टी के खिलौने खरीदने वाला कोई न आया। थक हार कर दीयों को पीठ पर लाद लौट चले घर को। मन उदास, आँसू भरी आँखें दिल पर मानो मनों बोझ। दीपावली के पर्व पर ही तो सबसे अधिक बिक्री हुआ करती थी। कैसे मिटेगी भूख, कैसे चलेगा घर, बेटी का ब्याह, बच्चों की पढ़ाई …. कैसे होगा सब कुछ। इन्हीं सवालों में घिरे सोचते सोचते कब आँखें लग गई पता नहीं। पत्नि बेचारी खाने पर पुकारती रही पर गहरी नींद में पता ही नहीं चला।
अपना भारत बिल्कुल बदल गया है। विकास के मायने क्या अपने देष की सभ्यता और संस्कृति को भूल जाना है? और उससे भी अधिक खतरे वाली बात तो ये है कि पूरे भारत बाज़ारों में आज हर सामान चीन से बनकर आ रही है। क्या हमारे देष में लोग सामानो को पैदा नहीं कर सकते हैं। आप षायद ना जानते हों पर भारत ही वो देष है जहाँ हर वस्तु बनाई जाती थी। हर वस्तु की फैक्ट्री लगी हुई थी भारत में। पर अब उमनें से अधिांष बन्द हो चुके हैं और बचे खुचे बन्द होंने की कगार पर हैं। पता है क्यों? क्योंकि अपने देष में बनी वस्तुएं चीन से आई वस्तुओं के मुकाबले महंगी होती थीं। लेकिन आज चीन से आए सामान से पूरे भारत में जैसे चीन का कब्जा हो गया हो। भारत में उत्पादित वस्तुएं बिल्कुल नदारद। सही मायने में देखा जाए तो भारत में आधुनिक तकनीक से सस्ती, अच्छी और टिकाऊ वस्तुएं बनाने पर जो बल देना था वो बल सस्ती परन्तु कामचलाऊ वस्तु चीन से भारत लाने में दिया गया। ये हमारे देष और देषवासियों के सेहत के लिए अच्दी नहीं।
दोस्तों, मेरा भारत वो देष है जहाँ कभी सोने की चिडि़यों का बसेरा हुआ करता था। जहाँ लोग अपनो को छांेड़ दूसरों की मेज़बानी करने में अधिक विष्वास रखते थे। ये अच्छी बात है। पर इसके मायने ये तो नहीं कि हम अपना सबकुछ नश्ट कर दूसरों को आगे बढ़ाएं? अपने देष के अस्तित्व को ही नश्ट कर दें?
भारत को भारत ही रहने दो दोस्तों, इसे चीन ना बनाओ, इसे चीन ना बनाआ., इसे चीन न बनाओ