आज की स्त्री और उसकी शिक्षा
“विद्या बिना मति गयी, मति बिना नीति गयी।
नीति बिना गति गयी, गति बिना वित्त गया।
वित्त बिना शूद्र गये, इतने सभी अनर्थ एक अविद्या ने किये।।”1
प्राचीन भारतीय समाज संकुचित दायरे वाला एक बंद समाज था। वह घोर अंधविश्वासों, परंपराओं, रूढ़ियों, जाती-पाँति व छुआछूत के भेद-भाव से बुरी तरह से ग्रस्त था। इस समाज में स्त्रियों की दशा पशुओं से भी बदतर थी। ज्ञान-विज्ञान और तर्क-वितर्क की चेतनामय रोशनी से यह समाज कोसों दूर था। प्रकृति का यह नियम है कि हर एक पल एक जैसा नहीं रहता। उसमें बदलाव होते रहता है। कहा जाता है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। इसी आवश्यकता और आविष्कार के लिए समाज अपने आप में विस्फोटक परिवर्तन लाते रहता है। परिवर्तन की मशाल अपने हाथों में लिए अंधकार से उजाले की ओर चल पड़ता है। परिवर्तन के इस उजाले में उस समाज को अच्छे और बुरे का सम्यक ज्ञान मिलने लगता है। यह परिवर्तन शिक्षा के कारण ही हो पा रहा है। शिक्षा के द्वारा ज्ञान-विज्ञान की बातों को आत्मसात कर मनुष्य समाज में बदलाव ला रहा है। ऐसे में धार्मिक कठमुल्लापन और तथाकथित ‘देव वाणियों’ ने चेतनामय समाज में रोड़े अडाये नजर आते हैं। शायद इसीलिए आजका यह विकसित (?) समाज अविकसित-सा नजर आता है।
भारतीय समाज व्यवस्था में शिक्षा प्राप्त करने व कराने का अधिकार उन्हीं (अ)भद्र लोगों को था जिनका जन्म हिन्दू पुराणों के एक कल्पित पात्र ‘ब्रम्हा’ के मुख से हुआ ऐसा माना जाता है। ( विज्ञान ने एवं तर्क-वितर्क ने इस बात को पूरी तरह जड़ से खारिज करते हुए स्पष्ट कर दिया कि मनुष्य का जन्म न तो किसी के आशीर्वाद से होता है और न ही किसी के मुख से या पैर से।) ऐसे समाज में स्त्री का स्थान न के बराबर था। उसे तो केवल ‘ताड़न का अधिकारी’ मात्र माना जाता रहा। ऐसे कई भयंकर व घृणास्पद सामाजिक, धार्मिक प्रथाओं के चलते भारतीय स्त्रि सदैव अपमानित होती रही है। लेकिन स्त्री-पुरुष समानता के विचार रखने वाले कई समाजसुधारकों एवं महानुभूतियों द्वारा चलाये गए सुधारवादी आंदोलनों के फलस्वरूप स्त्री में चेतना आने लगी। शिक्षा के महत्व को वह भी पहचानने लगी। इस सुधार को भारतीय समाज के विशेषकर स्त्री के नव-निर्माण का काल कहा जाना चाहिए। 19 वीं शताब्दी में भारतीय समाज के पुनर्जागरण के तहत यहाँ के सड़े-गले धार्मिक विचारों के स्थान पर तार्किक विचारों को अपनाया जाने लगा। स्त्री को पढ़ाने-लिखाने से समाज का हित ही होगा अहित नहीं इस तथ्य को लोग समझने लगे। स्त्री-शिक्षा और उसके महत्व की और संकेत करते हुए महात्मा ज्योतिराव फुले ने कहा है- “मुझे ऐसा लगता है कि बच्चे में जो संस्कार माता की वजह से आता है वह बहुत ही महत्वपूर्ण और अच्छा होता है। इसलिए जो लोग देश की सुख-समृद्धि के लिए चिंतित हैं, उन्हें महिलाओं की दशा पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और यदि वे वास्तव में चाहते हैं कि देश प्रगति करे तो उन्हें महिलाओं को ज्ञान प्रदान कराने का हर संभव प्रयास करना चाहिए।”2
भारत जैसे पुरुष प्रधान समाज में स्त्री शिक्षा को लेकर बहुत सी चर्चा-परिचर्चाएँ समय समय पर होती रही हैं। पर धार्मिकता की आड़ लेकर उसे चार दीवारों में ही कैद कर रखने का प्रयास किया गया। शिक्षित समाज के लोगों द्वारा ही ऐसा किया जाता रहा। ऐसे घिनौने प्रयास वर्तमान समय में ही नहीं बल्कि स्त्री की शिक्षा के प्रति ऐसी संकुचित धारणा बहुत पहले से थी। इस बात को महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का कथन और पुख्ता बना देता है। वे ‘स्त्री-शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन’ नामक लेख में लिखते हैं- “बड़े शोक की बात है, आजकल भी ऐसे लोग विद्यमान हैं जो स्त्रियों को पढ़ाना उनके और गृह-सुख के नाश का कारण समझते हैं। और, लोग भी ऐसे-वैसे नहीं, सुशिक्षित लोग- ऐसे लोग जिन्होंने बड़े-बड़े स्कूलों और शायद कालेजों में भी शिक्षा पाई है, जो धर्म-शास्त्र और संस्कृत के ग्रन्थ साहित्य से परिचय रखते हैं, और जिनका पेशा कुशिक्षितों को सुशिक्षित करना, कुमार्गगामियों को सुमार्गगामी बनाना और अधार्मिकों को धर्मतत्व समझाना है।”3 एक ओर कर्तव्यदक्ष स्त्री के करुणामयी रूप की चर्चा की जाती रही, उसे दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती आदि संज्ञाओं से संबोधित कर पूजनीय माना जाता रहा तो दूसरी ओर उसे “स्त्रियों के लिए कर्तव्यशिक्षा”4 जैसे फतवे जारी किये जाते रहे।
स्त्रियों की शिक्षा के विरोध में कई प्रकार की बाधाओं को देखा गया। फिर भी परिवर्तन की लहर को किसीने रोक नहीं पाया। आज स्त्री के जिस स्वरुप को संसार देख रहा है वह रातों-रात उमड़ी कोई ‘आस्मिक बिजली की कौंध नहीं’ बल्कि इस स्वरुप को प्राप्त करने में स्त्री को कई पड़ावों से गुजरना पड़ा है। कई महान समाजसुधारकों के आदर्शों को अपने सामने रखकर वह अपनी राह खुद बनाती गयी। वैसे तो “उपनिषद् काल से ही गार्गी, मैत्रेयी जैसे स्वतंत्र चेता स्त्रियों का हमें परिचय मिलता है।”5 इसी क्रम में आंडाल, अक्कमहादेवी, मुक्ताबाई, अहल्याबाई होळकर और मीराबाई जैसे अनेक नामों को लिया जा सकता है जिन्होंने तत्कालीन स्त्री अस्मिता के परिस्थितियों से जूझते हुए स्त्रियों की दिशा व दशा में ऐतिहासिक एवं मौलिक परिवर्तन लाने में नींव का पत्थर बनीं।
भारत में स्त्री की दयनीय परिस्थितियों पर वास्तविक रूप से विचार 19 वीं शताब्दी से शुरू होता है। इस काल को ‘सुधारवादी जीवन-दर्शन काल’ और ‘नवजागरण काल’ के नाम से संबोधित किया जाता रहा है। इस काल में राजा राममोहन राय का नाम विशेष रूप से लिया जाता रहा है। इन्होंने विधवाओं की स्थिति पर आवाज बुलंद की थी। इस प्रकार देखा जाय तो स्त्री के सन्दर्भ में भारतीय समाज में बहुत पहले से चेतना निर्मित हो रही थी। आज स्त्री चिंतन का जो रूप उभरा है वह “भारत की प्रबुद्ध नारियों और विचारकों के चिंतन की उपज है…।”6
भारत में स्त्री चिंतन पर बात करते समय जॉन स्टूवर्ट मिल की चर्चा बड़े आदर से की जाती है। ‘स्त्री पराधीनता’ के माध्यम से उन्होंने स्त्री के सन्दर्भ में अपनी बात रखने का प्रयास किया था। मिल ने भारतीय स्त्री विमर्शकों से जितनी प्रशंसा पायी है शायद ही वे अन्य किसी देशवासियों से पायी होगी। आज मिल भारतीय स्त्री विमर्श के केंद्रबिंदु बन-से गए हैं (?)। यही कारण होगा कि स्त्री विमर्श को पश्चिम से आयातित माना जाता रहा है। लेकिन उक्त तर्क को बहुत ही सरल रूप से खारिज कीया जाता रहा है- “श्री आर. एन. समद्दन के अनुसार जिस समय ‘स्त्री पराधीनता’ के लेखक जे. एस. मिल अपनी बाल्यावस्था में थे उस समय समाज में नारी की भूमिका के विषय में अधुनातन विचार भारत में राममोहन राय ने प्रस्तुत किया था।”7
19 वीं सदी में स्त्री शिक्षा की आवश्यकता को समाज के सभी तबकों के लोगों ने विशेष कर स्त्रर्यों ने जान लिया। फलतः अमीर-गरीब, ऊंच-नीच आदि का भेदभाव मिटाकर स्त्रियाँ शिक्षित होने की आस लगाए रहने लगीं। लेकिन स्त्रियों की शिक्षा के कार्य को भारतीय समाज में आसानी से पूर्णरूप नहीं दिया जा सका। पग पग पर इसका विरोध किया जाने लगा। जो लोग स्त्रियों के लिए शिक्षा प्रदान करने की सोच रखकर कार्य कर रहे थे उन्हें उन्हीं के घर से बेदखल कर दिया जाता। फिर भी कुछ महान हस्तियाँ अपने जीवन के लक्ष्य के प्रति इतने कर्मठ होते हैं कि उन्हें संसार की कोई भी ताकत नहीं रोक सकती। ऐसे ही एक महान समाजसुधारक भारतीय समाज में हुए हैं। वास्तव में देखा जाय तो स्त्री संबंधी किसी भी पहलू पर बात करते समय, विशेषकर स्त्रियों की शिक्षा के सन्दर्भ में बात करते समय, उनका स्मरण किया जाना चाहिए। पर शोकांतिका यह कि उन्हें भी अछूत ही समझकर हाशिये पर छोड़ दिया जाता है। वे हैं- महात्मा ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले। इन्होंने अपने घर परिवार की चिंता छोड़ समाज में व्याप्त अन्धविश्वास, स्त्री-पुरुष असमानता, स्त्री शिक्षा, विधवा पुनर्विवाह, छुआछूत, किसानों की समस्यायें ऐसे कई बुराईयों के खिलाफ जंग छेड़ दिया। क्रांतिसूर्य ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले ने ” 3 जुलाई, 1847 में बुधवार पेठ में रहनेवाले अण्णासाहेब चिपलूणकर के विशाल भवन में केवल लड़कियों के लिए एक स्कूल खोल दिया। ज्योतिबा ऐसे पहले भारतीय थे जिन्होंने केवल लड़कियों की पढाई के लिए स्वतंत्र स्कूल खोलने की दूरदर्शिता दिखायी।”8 स्त्रियों की पढाई-लिखायी के लिए योजनाएँ तो कइयों ने बनाईं, नियम आदि भी कइयों ने बनाये, लंबी-चौड़ी रचनाएँ भी लिखे पर क्रियान्वयन बहुत कम लोगों ने किया। जिन्होंने भी इस महान कार्य को कई कठिनाईयों के बावजूद भी सफलतापूर्वक संपन्न किया आज उनका आदर्श लेना तो बहुत दूर उनका स्मरण तक नहीं किया जाता। इसे भारतीय समाज की विडम्बना ही कही जा सकती है। भारतीय बुद्धिजीवियों में कई लोग पहले तो अपने आपको स्त्रियों के पक्ष में खड़े करते हैं। बाद में अपना सुर उसके विरोध में सुनाने लगते हैं। उदहारण स्वरूप महावीर प्रसाद द्विवेदी को ही लें। पहले वे स्त्रियों को शिक्षित करने से रोकनेवालों को फटकार लगाते हैं। ( जैसे कि इसी लेख के सन्दर्भ 3 में उल्लेख किया गया है) लेकिन ‘मनु महाराज’ की देववाणी के खिलाफ जाने की द्विवेदी जी में उतनी हिम्मत ही कहाँ? अतः वे बड़ी चतुराई से अपनी बात को बदलकर दूसरे पद्धति से प्रस्तुत करते हैं। वे ‘स्त्रियों का सामाजिक जीवन’ नामक लेख में लिखते हैं- “स्त्रियाँ स्वभाव ही से सुकुमार होती हैं। वे स्वभाव ही से दुर्बल होती हैं। उनकी शारीरिक शक्ति पुरुषों की अपेक्षा बहुत कम होती है। वे अपनी रक्षा आप नहीं कर सकतीं। इस दशा में यदि धर्मशास्त्र ने उन्हें पिता, पुत्र या पति के वश में रहने का नियम कर दिया तो क्या गजब किया?”9 जहाँ स्त्री को अपने पैरों पर खड़े होकर स्वावलंबी व शक्तिशाली बनाने की पहल की जा रही थी वहीँ द्विवेदी जी स्त्री को दुर्बल एवं शक्तिहीन होने का भोंडा तर्क देते हैं। लेकिन अब परिस्थितियाँ बदल रही हैं। स्त्रियाँ शिक्षित होने के कारण अब वे सवाल करने लगी हैं। अपने स्वतंत्र होने की बात व अपने अधिकारों की बात भी करने लगी हैं। किसीने बिल्कुल ठीक ही कहा है कि ‘शिक्षा शेरनी के दूध के समान है, जो इसे पियेगा वह दहाड़े बिना नहीं रह सकता।’ स्त्री चिंतन का वर्तमान परिदृश्य इसका जीता-जागता उदाहरण है। ऐसा केवल स्त्रियों के शिक्षित होने के कारण संभव हुआ है इसमें दो राय नहीं। संवैधानिक प्रावधानों ने भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है इस बात को नकारा नहीं जा सकता।
भारत में बहुत पहले से सामंती व्यवस्था अपने चरम सीमा पर रही। आज वैश्वीकरण के दौर में भी इसी तरह के व्यवस्था को देखा जा सकता है। उसका स्वरुप बदला हुआ है। आज उसे ‘पूँजीवाद’ के नामसे पहचाना जा रहा है। “पूँजी के नग्नतम और क्रूर हाथों से जिन दो समूहों को सबसे ज्यादा तबाही का सामना करना पड़ रहा है उनमें पहले स्त्रियाँ हैं और दूसरे नंबर पर मजदूर वर्ग हैं।”10 इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्त्री की हालत भी कुछ दलितों जैसे ही या दलितों से भी ख़राब है। वर्णाश्रम में अछूत उन्हें कहा जाता है जो सबसे ज्यादा काम करते हैं। अधिक काम करने के बदले में यदि वे थोड़ी-सी भी ऊँची आवाज में कुछ माँगते हैं तो उन्हें सिवाय भद्दी-भद्दी गालियाँ, मार-पीट के अलावा कुछ नहीं मिलता। ऐसा करने के पीछे उनके पूर्व जन्म का पाप समझा जाता है। ऐसे घोर सामाजिक कुरीतियों, धार्मिक अंधविश्वासों वाले भारतीय समाज में रातों-रात बदलाव लाना आसान काम नहीं था। शायद इसीलिए रामविलास शर्मा ने कहा है कि- “सामंती समाज-व्यवस्था को बदलना सबसे मुश्किल काम है, सामाजिक कुरीतियों को मिटाना बहुत कठिन है, धार्मिक अंधविश्वासों का निर्मूलन करना दुष्कर है। भारत में सामंती व्यवस्था बहुत पुरानी है, शायद दुनिया में सबसे ज्यादा पुरानी है, उतना ही भारतीय जनता के मन में उसकी जड़ें गहरी हैं।”11 उक्त कथन में रामविलास शर्मा जी सामंती समाज- व्यवस्था को ख़त्म करने की चिंता प्रकट करते नजर आते हैं। वे समाज-व्यवस्था में उपस्थित उन अमानवीय मूल्यों और रूढ़ियों की अपने अंतर्विरोधों के चलते आलोचना भी करते हैं, जो स्त्री-पुरुषों के बीच भेदभाव की दीवार खड़ी करते हैं।
पंडिता रमाबाई, श्रीनारायण गुरु, पेरियार रामस्वामी नायकर, डॉ. भीमराव अंबेडकर आदि ने स्त्री शिक्षा के सन्दर्भ में बहुत बड़ा योगदान दिया। वैसे देखा जाय तो “भारत मैं स्त्री-आंदोलन की वास्तविक शुरुआत 19 वीं सदी के आखिरी दशकों में हुई, जब पंडिता रमाबाई, रमाबाई रानाडे, आनंदीबाई जोशी, फानना सारोबजी और रुक्मा बाई जैसी स्त्रियाँ अपने घरों में पुरुष-प्रधान समाज द्वारा थोपे गए बंधनों को तोड़कर उच्च शिक्षा के लिए विदेश गईं।”12
यह सच है कि प्राचीन काल से ही स्त्रियों को शिक्षा के क्षेत्र से बेदखल करने की कूटनीति शुरू हुई थी। इसमें धार्मिक ग्रंथों ने बड़ी अहम भूमिका निभाई। फिर भी इस कूटनीति को धत्ता बताते हुए आंडाल एवं मीराबाई जैसी साहसी साध्वी स्त्रियों ने न केवल पुरुषवादी मानसिकता पर प्रहार किया बल्कि अपनी निजता के अनुरूप जीवनयापन कर स्त्री-चेतना की जागृति की पहल की। ऐसे ही कई महानुभावों के नक़्शे क़दमों पर चलते हुए स्त्री ने अपने स्वतंत्र अस्तित्व को मनचाहा रूप प्रदान किया। इससे भी आगे बढ़कर बदलते सामजिक परिवेश में शिक्षा के महत्त्व को पहचाना। आज वह कई चुनौतियों का सामना दृढ़तापूर्वक करते हुए अपने जीवन की भाग्यविधाता स्वतः को मान रही है। ऐसा केवल शिक्षा प्राप्त करने व सुशिक्षित होने के चलते ही संभव हो पाया है। अतः भारतीय समाज के लोगों को चाहिए कि वे स्त्रियों की शिक्षा के सन्दर्भ में किसी भी प्रकार के बंधनों को न लगाएँ। जिस प्रकार लड़कों पर विश्वास कर के उन्हें शिक्षित किया जाता है उसी प्रकार लड़कियों पर भी विश्वास कर के उन्हें भी अच्छी शिक्षा प्रदान करानी चाहिए जिससे वे चेतनावान व आत्मनिर्भर बन सकें। अन्यथा जैसे कि इस प्रपत्र के शुरुआत में ही कहा गया है – ‘बिना विद्या के मति, गति, वित्त, सब कुछ चला जाता है, ऐसा कभी होने नहीं देना चाहिए। क्योंकि आज जिस सम्यक ज्ञान के आधार पर समाज उन्नति कर रहा है उस ज्ञान को समाज के सभी तबकों के लोगों तक, ख़ास कर स्त्रियों तक, पहुँचाना चाहिए। ऐसा न होने के पक्ष में उस ज्ञान का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। इसीलिए शायद राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने कहा भी है कि- “विद्या हमारी भी न तब तक/ काम में कुछ आएगी/ अर्धांगिनियों को भी सुशिक्षा/ दी न जब तक जायेगी।”13
सन्दर्भ
1. धनंजय कीर, महात्मा जोतीराव फुले आमच्या समाजक्रांती चे जनक (मराठी), पॉप्युलर प्रकाशन प्रा. लि. मुंबई, तीसरा पुनर्मुद्रण-2008, पृ. क्र. 206 पर उध्दृत
2. प्रो. हरी नारके, ज्ञानज्योति सावित्रीबाई फुले-भाग एक अंतरजाल hindiroundtableindia.co.in से उध्दृत
3. जगदीश्वर चतुर्वेदी, सुधा सिंह, स्त्री-अस्मिता साहित्य और विचारधारा, आनंद प्रकाशन, कोलकाता, प्रथम संस्करण सन 2004, पृ. क्र. 42 से उध्दृत
4. जयदयाल गोयंदका द्वारा लिखित ‘स्त्रियों के लिए कर्तव्यशिक्षा’ नामक पुस्तक गीता प्रेस गोरखपुर (यू.पी.) से प्रकाशित है। इस पुस्तक को अपने एक लेख में क्षमा शर्मा ‘मनुवादी तालिबानों का घोषणा-पत्र’ संबोधित करती हैं।
5. डॉ. के. यम. मालती, स्त्री विमर्श:भारतीय परिप्रेक्ष्य, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, आवृत्ति-2012, पृ. क्र. 9
6. वही, भूमिका से
7. वही, पृ. क्र. 27 से उध्दृत
8. वही, पृ. क्र. 34
9. जगदीश्वर चतुर्वेदी, सुधा सिंह, स्त्री-अस्मिता साहित्य और विचारधारा, आनंद प्रकाशन, कोलकाता, प्रथम संस्करण सन 2004, पृ. क्र. 48 से उध्दृत
10. वही, भूमिका से, पृ. क्र. 7
11. नैना, हिंदी नवजागरण और स्त्री-लेखन, वागर्थ, भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता, नवंबर 2012, अंक 208, पृ. क्र. 70 से उध्दृत
12. वही, पृ. क्र. 63
13. डॉ. भारती स्मित, स्त्री विमर्श और प्रेमचंद, गगनांचल, प्रेमचंद विशेषांक, भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद, नयी दिल्ली, सितंबर-अक्तूबर 2014, पृ. क्र. 18 से उध्दृत