मनव-मूल्य और भारतीय परंपरा
डाॅ. पी . हरिराम प्रसाद
हिन्दी विभागाध्यक्ष
शासकीय महाविद्यालय
काकिनाडा, अन्ध्र पदेश – 533 001.
फोनः 09440340057
मानव मूल्य एक धारणा है जिस का संबन्ध मानव से है। मानव मूल्यों को ही मानव व्यवहार एवं समाज कल्याण की कसौटी माना जाता है। इन मानव मूल्यों की स्थापना मानव जीवन के विविध पक्षों का मानव व्यवहार नामक व्यापक वर्ग का एक अंग है। “ समस्त मानव व्यवहार मूल्यांकन से अनुप्राणित है।”1 मानव मूल्य मानव की सृजनात्मक प्रवृत्ति पर आधारित होते हैं। मानव मूल्य कहीं से अचानक टपक नहीं पडते बल्कि वे अपने सामाजिक आर्थिक परिवेश और समाज से उपजे हैं। “हम सभी वस्तुओं को मानव से अलग करके उन पर विचार नहीं कर सकते वरना, मानव जीवन व व्यवहार के संदर्भ में ही प्रत्येक वस्तु का मूल्यांकन करते हैं।” मानव मूल्य बाह्यारोपित वस्तु न होकर जीवन के संदर्भ में विकसित होते हैं। मानव मूल्य स्वतंत्रता और समानता का प्रतिपादन करते हैं तथा एकता, समन्वय, सामंजस्य और संतुलन को बनाए रखते हैं।
पुरा भारतीय चिन्तकों में मानवीयमूल्यों की जो परंपरा दिखाई पडती है, वह ईमानदारी, आध्यात्मवादी, धर्मप्रदान और भाववादी ही है। ईश्वर सगुण हो या निर्गुण हो उस की उपासना के लिए कुछ विशिष्ट मूल्यों की सर्जना की गयी थी। ये मूल्य थे । ज्ञान, भक्ति और कर्म। धीरे-धीरे इन प्रमुख मूल्यों के कारक तत्वों तथा प्रेम, श्रध्दा और विश्वास को मूल्यरूप में स्वीकार लिया गया। वैदिक काल में मूल्यों का पालन समूह के सााथ कराने का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद की रचनाएँ इस का प्रमाण हैं ।
संगच्छध्वं संवध्व सं वे मनांसि जानताम्
समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्।
समानी वयाकूतिः समानं हृदयानि वः।
शमानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।।
हम सब मिलकर चलें, साथ साथ वार्ता करें, एक दूसरे के मन को समझें। हमारी मन्त्रणा से एक ही निष्कर्ष निकले एवं हामरा चित्त भी समन्वित रहे। हमारे विचारों एवं भावनाओं में भी समानता रहे। हम मन से एक दूसरे को समझें जिस से हम विकास के मार्ग पर अग्रसर हों। उपनिषद्काल में आत्मा परमात्मा का चिन्तन प्रमुख हो गया था , लेकिन सटय के कल्याणकारी महत्व को ईशावस्योपनिषद् ने भी स्वीकार किया है ।
पूषत्रेकर्षे यम सूर्य प्राजपत्य वयूहरश्मीन् समूह।
तेजो यत्तै रूपं काल्याणतमं तत्ते पश्यामि।।
हे भरण करनेवाले। एकचारी संसार के उत्पत्ति कर्ता सूर्य अपनी किरणों को समेटो जिससे, मंै आप के तेजोमय कल्याणरूप को देख सकूँ।” रामायण और महाभारतकालीन समाज में समय एवं परिवेश में परिवर्तन आ चुका था। धर्म , अर्थ, काम, मोक्ष को मूल्यों की श्रेणी में रखा गया । इस के बाद के अचार्यों ने मूल्य सम्बंधी अवधारणा को एक संास्कृतिक का्रन्ति के रूप में देखा और उसके तहत ‘सत्यं शिवम् सुन्दर’ को मूल्य के रूप मे प्रतिष्ठित किया। मध्यकालीन आचार्यों ने इस का विरोध किया तथा इसे सामाजिक स्वरूप प्रदाान किया। कालान्तर में इस दर्शन में कार्मकाण्ड प्रविष्ट हुआ जिस का विरोध बौध्दों और जैनाचार्यों ने किया। चार्वाक या लोकायत । दर्शन ने इन अध्यात्मिक मूल्यों के स्थान पर भौतिकवादी मूल्यों की प्रतिस्थापना की।धन ही सभी इच्छाओं की पूर्ति करने का साधन बन गया। चार्वाक दर्शन भी मूलभूत भावना है ।
“यावत् जीवेतम् सुखेन जीवेत।
ऋणं कृत्वा धृतं पीवेत।”
जब तक जिएँ सुख से जिएँ
ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत
भारतीय शास्त्रों में सत् तत्व ही ईश्वर है। बाह्याचारों एवं आडम्बरों का प्रचार होने पर सत्य पर आवरण चढने लगता है।गीता में सत् शब्द प्रशास्त कर्म के लिए प्रयुक्त हुआ है ।
“सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते।।2
मानवीय सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में भारतीय मनीषियों की चिन्तन पध्दति सहायक रही है। मनुस्मृति में मानर्व धर्म के लक्षण इस प्रकार वर्णित हुए र्है ।
“धृतिः क्षमा दया स्तेयः शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यम का्रेधो दशकं धर्मलक्षणम्।।” 3
अर्थात् धैर्य ,क्षमा, दया ,स्तेय, शौच इन्द्रियों का संयम, सुमति, स्वाध्याय, सत्य एवं आक्रोध धर्म के दस लक्षण माने गये हैं। इस तरह ये मूल्य एक ओर भागवत या आत्मगत रूप में विकसित हुए तो दूसरी ओर भौतिकवादी या वस्तुगत रूप में। इस तरह मानव मूल्य का विकास व्यष्टि से होते हुए समष्टि की ओर अग्रसर हुआ।
संदर्भ:
1 संस्कृति का दार्शनिक विवेचन: डाॅ देवराज पृ सं 81
2 श्री मद्भागवत गीता 17 रू 26
3 श्री मद्भागवत गीता 16ः 1 दृ र्2 3
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