TEJASVI ASTITVA
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ISSN NO. 2581-9070 ONLINE

भारतीय नारीत्व का प्रतिरुप…आशापूर्णादेवी /कथा साहित्य के संदर्भ में/ – डॉ .सी.हेच.वी.महालक्ष्मी

भारतीय नारीत्व का प्रतिरुप…आशापूर्णादेवी
/कथा साहित्य के संदर्भ में/

डॉ .सी.हेच.वी.महालक्ष्मी, सहायक  आचार्या,
सेंट थेरेसा महिला विद्यालय, एलूरु,
प.गो.जिला. आंन्ध्रप्रदेश।

प्राचीन काल से महिलाए विश्व साहित्य मे अपनी कलम का परिचय देती रही है। सृष्टि के आरंभ से ही नारी किसी न किसी कारण से चर्चा के केंद्र मे रही है। साथ ही वह साहित्य का केंद्र बनी और कालांतर मे स्वयं साहित्य सृजन की दिशा में उन्मुख हुई। नारी साहित्य के क्षे्त्र में पुरुष का साथ देती आई है। वर्तमान युग मे भी वह लेखन के क्षेत्र में अपनी योग्यता को प्रमाणित कर रही है।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद बंगला साहित्य को यथार्थता के धरातल पर खडा कराने का प्रयास किया गया है। प्रमुखतः ‘कल्लोल’ और ‘भारतीमंडल’ पत्रिकाओं के कहानीकारों ने जो काम किया है वह सराहनीय रहा। उनमें आशापूणा्र्रदेवी की कहानियाॅ भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इन कहानियों में भारतीय नारी का जिस यथार्थ चिंतन रूप को आशापूर्णादेवी ने खींचा है, वह अविस्मरणीय है।
महान लेखिका आशाजी का जन्म 8 फरवरी 1909 को कलकत्ते के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। पिता चित्रकार थे। माॅ गृहिणी थी। लेकिन दोनों को साहित्य से लगाव था। घर में बहुत सारी पुस्तकें आती थी। कुछ खरीदते थे और कुछ ग्रंथालयों से मंगाते थें। इस विपय में आशा खुद कहती थी कि ‘‘माॅ की पढाई कंभकर्ण की भूख थी।’’ माॅ की यही आदत छोटी आशा के भविष्य को उज्वल बना दी और उसे बंगला साहित्य के आसमान में एक धृवतारा बना दी।
घर में अनुशासन बद्ध वातावरण था। पुरानी बंगला समाज के रीति…रिवाजों का भोला…भला था। लडकियो की स्कूली शिक्षा निषेध थी। तीन भाइयो के पीछे छुपा बैठकर वर्णमाला सीख लीं। अक्षरज्ञान प्राप्त कर कहानी…उपन्यास पढती थी। संगीत,चित्रकला आदि घर पर ही सीखना था। बाहर जाने का अवसर ही नही था। लेखिका खुद इस विषय में कहती है कि माॅ ने कहा ‘ इस बार पूजा देखने जा रही हो देख आओ। अगले वर्प नहीं जा सकोगी। अब बडी हो गई हो।’ छोटी आशा माॅ की अलमारी से पुस्तके लेकर किसी कोने मे बैठकर पढती थी। बाहरी संसार की कल्पना करती थी। दुनिया की प्रकृति से परिचित होना चाहती थी। लेकिन घर की रूढिगत मान्यताओं के कारण ये सब असंभव थे।
घर में बैठक में जाना मना था। परिवार को छोड नये व्यक्तियो से मिल न पाती थी। पर्दे के पीछे से उन्हे देखकर उनकी बातें सुनती थी । वह हमेशा अपनी मध्यवर्गीय जीवन से तरसती थी। वह सोचती थी कि वह किसी गरीब या धनवान के घर पैदा होती तो इतने बंधन नही होते। कभी कभी शादी के बाद इच्छानुसार रहने की कल्पनाएॅ करती। लेकिन विवाह के बाद पिता के घर से पति के घर पूर्ण गृहिणी बन गयीं।
विवाह के बाद भी उसे पुस्तकें पढने का सुअवसर प्राप्त हुआ। स्कूली शिक्षा न मिलने के कारण अंग्रेजी का ज्ञान न था। केवल बंगाल साहित्य ही उसे परिचित था। उनके जीवनपर्यंत यही वेदना उनके मन में बैठी रही। एक बार उसकी भतीजा नवनीता देवसेना अमेरिका जाते समय आषा उसे मिलने गयी। उससे कही कि‘‘ हमारे घर में तुम अकेली औरत अमेरिका पढाई केलिए जा रही हो।…तुम्हारे साथ मै भी आ रही हॅू। यह बात मैं चुपके से तुम्हे ही बता रही हॅू।’’… इससे हमें आशा की पढाई की इच्छा और वेदना का पता चलता है।
आशापूर्णादेवी ने लगभग डेढ हजार कहानियाॅ और बहुत सारे उपन्यास लिख कर बगला साहित्य की वृद्धि की। उन्होंने कही बैठक गोप्ठी में नही गयी। अपने घर की खिडकी से बाहरी समाज की कल्पना करके वह रचनाएॅ करती थी। समाज सेवको या राजनीतिज्ञों की जानकारी इसे नही थी। स्कूली शिक्षा से दूर रहने के कारण उनका सोच…विचार बंगाल के घरेलू वातावरण और नारी के सामाजिक बंधनों के इ्रर्द…गिर्द ही चलती रही। इसी कारण कुछ लोगों ने उसे  visionary women भी कहां लेकिन वह यथार्थ घटनाओं को अपनी सृजन शक्ति से कहानियाॅ बनाती थी। केवल घर बंदी नारियों की मनोभावनाओं को प्रतिबिंबित करनेवाली कहानियाॅ ही उनके कलम से निकलीं। इनके माध्यम से लेखिका ने राप्ट्रृीय अस्मिता को बनाया। नारी अपनी अस्तित्व केलिए जिस मारक प्रक्रिया से गुजर रही है, वह अत्यंत अपमानजनक और पीडादायक है। नारी के सही समाजीकरण केलिए उसे जन्म से ही परिवार में सम्मान मिलना आवष्यक है। लेकिन अंन्तद्वंद्व अभी भी जारी है।
पहले आशा देवी बच्चों केलिए लिखती थी। उनकी पलही रचना ‘बालसाथी’ थी। बडों केलिए उनकी कलम से निकली पहली रचना ‘‘पत्नी और पे्रयसी’’ जो आनदबाजार पत्रिका में प्रकाषित हुई। पहली कहानी से ही आशाजी बंगाली पाटको के मन अपनी ओर आकर्षित की। इनकी कहानियाॅ पढकार लोग सोचते थे कि यह कहानीकार कोई मर्द होगा जो एक स्त्री का नाम रखकार लिखता है। उनका विश्वास था कि ऐसी सशक्त रचनाएॅ पुरुष ही कर सकता है। लेकिन बंगाल के पाठकों का यह भ्रम चालीस साल के बाद जब उन्हे सन्1978 में ज्ञानपीट पुरस्कार प्राप्त हुआ, तब दूर हो गई। नयी पीढी की इस चर्चित कथा लेखिका ने बहुत कम समय मे ही अपनी एक अलग पहचान बना लीं।
आशाजी एक नारी है। अनेक सामाजिक बंधनों में पली वह बचपन सें ही नारी की समस्याओं से परिचित थी। घर में सब कुछ होते हुए भी सब के बीच एकाकी रहने वाली नारी की पीडा और आक्रोष को उसने जिस तरह से प्रस्तुत किया वह शायद और कोई न कर सकें। उनकी स्वर्णलता, बकुलकथा जैसी रचनाओं के नारी पात्र भारतीय कथा…साहित्य में अमर पात्र बनकर निकलीं। बंगाल में नारी केलिए निर्देषित मानदंडों, सामाजिक कुरीतियाॅ, पारिवारिक विडंबनाएॅ आदि उनके कहानियों में मुख्य विषय है। उनके नारी पात्र अपने…आप यह सब तोड नहीे सकती। वे मूक रूप से अपनी वेदना व्यत्क करनेवानी विद्रोहिणी नारियाॅ है। इनकी व्यथा…बाधा को व्यक्त करने में लेखिका ने किस प्रकार का प्रयत्न किया है, उसे समझने के लिए यहॅा हमें वर्डस्वथ की बातों को याद रखना है….Writing is the Spontaneous Overflow of Powerful Emotions.

आशापूर्णादेवी के नारी पात्र भीतर ही भीतर घुटती रहती हैं। वे अपनी स्थिति पर रोती है लेकिन बाहर नही आ सकती। इन नारियों का घुटन लेखिका ने बहुत नजदीक से देखी है, उनकी आवेदना पर पैनी नजर रखी है और उन्हे अपनी कलम से पर्दाफाश किया। एक तरह से वह खुद इनकी शिकार थी। उनके नारी पात्र केवल पुरुष के ही नही स्त्रियों के दबाव को भी सहती रहती है। घर के अंदर भी नारी ही नारी को दबाती है। नारी ही नारी की अवहेलना करती हैं उसकी विडंबना करती है। लंखिका ने कहीं कहीं अकेली निस्सहाय नारी का चित्रण भी किया हैं। उनकी नायिकाएॅ किसी न किसी कुंठा से गुजरती है। वे सोचती हैं कि प्रेम, त्याग, और सहनषीलता मे ही नारी के जीवन हैं।
आज के समाज में जितने भिन्न रूपों मं हम नारी को देख सकते हैं, उतने सभी रूप हमें इनकी कहानियों मेे दिखई पडते है। उनके स्त्री पात्र आर्थिक बोझ से बाहर निकलने केलिए न जाने क्या क्या करती है। बच्चे को चुराती है। विधवा भाभी समाज के भय से देवर को घर से बाहर निकालती है तो कही विधवा सांस बहू से तंग कर, अपने बेटे की मृत्यु पर खुषियाॅ मनाती है, क्योंकि अब बहु भी विधवा बनीं। हमारे नित जीवन में बहुत सारे छोटे बडे पा़त्र देखते है, जिनका हम कोई महत्व नही देते है। लेकिन वे ही पात्र इनकी कहानियों में महान बनकर हमारे सामने प्रस्तुत होती है। उनका हर एम पात्र हमे ऐसा लगता है कि इससे हमने कही मिले है। नारी की असहाय विडंबना को उन्होंने चित्रित की है। जीवन के कडवे…मीठे प्रसंगों की प्रस्तुति से हमें ऐसा लगता है कि यह किसी कथा का भाग नही, हमारे जीवन की घाटना है।
आशाजी को स्कूल या कालेज में पढने का अवसर न मिली तो क्या वह जीवन की पोथी को बहुत ध्यान से पढी। परिणामस्वरूप उनके कलम से अतुलनीय साहित्य का सृजन हुआ। उनके कलम से निकली अनगिनत नारी पात्र…माॅ, बहन, दीदी, मौसी, बुआ, काकी, मामी, नानी आदि हमारे चारो ओर घूमने वाले थे। घर…परिवार की ही नही , नौकर…चाकरों की मनोदषा से भी वह परिचित थी। चार दीवारी के भीतर रहकर भी उसने बंगाल के लाखों करोडों पाटकों के मन में सुस्थिर स्थान प्राप्त किया।
इतनी महान लेखिका होने पर भी वह कभी भी गृहस्थी के दायित्व से दूर नहीं भागी। वह घर संभालती ही अपनी साहित्य सृजन को जारी रखी। उनकी बहुत सारी कृतियाॅ लगभग सभी भारतीय भापओं मंे अनूदित हुई। वे ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त पहली महिला लेखिका है। ज्ञानपीठ पुरस्कार स्मारिका में उनकी प्रथम प्रतिश्रृति के बारे में लिखा गया है कि बंगीय नारी की उन्नीसवीं शताब्दी से लेकर क्रमिक विमुक्ति के इतिवृत्त को उदघाटित किया गया है। समूची कथा एक तेजस्वी उपन्यास के रूप में विकसित हुआ है। जिसका केंद्रबिंदु नायिका सत्यवती है।…..इसमे रूपयित हो गयी वह प्रक्रिया जिसमें भारतीय नारीत्व उचित गरिमा पा सकी।
आशाजी ने अपने नारी पात्रों के माध्यम से यह निरूपित करना चाहती कि नारी उच्च वर्ग की हो, मध्यम वर्ग की या फिर निम्न वर्ग की…. अभी भी समाज में उनके प्रति मानसिकता का बदलने की आवश्यकता हर क्षेत्र में है। नारी जीवन को रूढिगत परंपराओं मं बंद रखनेवाली बंगाल की सामाजिक व्यवस्था को नकारती हुई लेखिका ने एक नयी समाज की स्थापना की ओर सबकी द्प्टि बदलती है। वह तत्कानीन समाज में व्याप्त लिंग आधारित भेद भाव, संकीर्ण सोच…विचार से जन्मी असमानता और अन्याय के खिलाफ गला उठती है।
लेखिका स्त्री के स्वतंत्रता की कामना रखती थी। इधर स्वतंत्रता का अर्थ है सामाजिक, पारिवारिक ही नहीं दैहिक और मानसिक भी। आषाजी चाहती थी कि नारी को अजादी चाहिए, उस रूढिावादी समाज की बंधनों से, जो नारी के भीतर की विद्रोही आवाज सुनने से ही इनकार करते है। आजादी चाहिए उस सामाजिक सोच की मानसिकता से जो स्त्री के संपूर्ण अस्तित्व को ॅफसाए रखती है, उसे आज भी मानसिक तनाव एवं घुटन से मुक्ति नहीं है। उनकी नायिकाए षंकरी, षारदा, सौदामिनी, मोक्षदा के द्वारा नारी मन की व्यथा…कचोर, अपमान, पीडा, चिढा, करूणा व्यक्त करनेवाली अंतर्जगत को आशा जी ने उजागर किया।
डा.बी.कार के अनुसार ‘‘आशापूर्णादेवी के उपन्यासों में नारी मनोविज्ञान की सूक्ष्म अभिव्यक्ति है। पारिवारिक प्रेम संबंधी उत्कृप्टता उनकी कथाओं में है।’’
आषाजी का जीवन और उनकी रचनाओं को परखने के बाद निस्संदेह ही हम कह सकते है कि वह एक इधर ‘विजन’ का अर्थ है…..

V—Visualization of an

I—Individual’s

S—Sensibility of

I—Inner and

O—Outer

N—Nature

विजन का अर्थ होता है दृप्टि। लेकिन इधर विजन माने अंतरिक और बाहृय दोनो स्थितियों को परखने की चेप्टा। आशादेवी भी ऐसी दार्शनिक लेखिका है जिन्होंने अपनी रचनाओं से पाठकों को विस्मित कर दिया। इसी कारण किसी आलोचक ने कहा कि“ The Writer’s World of Aashapoornadevi , is not her own personal world. Rather it is an extension of  home –world of all of us.”

संदभ्र ग्रंथ सूचीः
1. शिखर  भारतीय महिलाए… सुमन कुमारी
2. आजकल…आगस्त 1995
3. स्वातंत्र्योत्तर महिला उपन्यासकारों के
उपन्यासों मे यथार्थ के विभिन्न रूपः नीहार गीते
4.भारतीय नारी दशा और दिश आशा  रानी बोरा
5.उत्तरशती का हिंदी साहित्य…डा. सुरेश कुमार जैन

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