TEJASVI ASTITVA
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ISSN NO. 2581-9070 ONLINE

साहित्य मानव जीवन को सुंदर बनाता है- डॉ. टी. गोविंदम्मा

साहित्य मानव जीवन को सुंदर बनाता है

डॉ. टी. गोविंदम्मा 

                         ईश्वर निर्मित संपूर्ण ब्रह्माण्ड में इतने सारे प्राणिकोटि में मनुष्य ही एक ऐसा जीव है जो हॅंस सकता है और बोल सकता है । अर्थात अपने मन के विचारों एवं भावों को वाणी के माध्यम से अभिव्यक्त करता है । चूंकि मानव समाज का अंग है तो उसका प्रतिनिधि बनकर समाज का चित्रण करता है ।यही वाणी की अभिव्यक्ति या शब्द चित्र को साहित्य कहा गया है । किसी भी भाषा के वाचिक एवं लिपिक रूप को साहित्य कह सकते हैं ।

                        मानव मन में बहुत सी ललित भावनायें और अनुभूूतियॉ तरंगित होकर सार्थक शब्दों में कलात्मक रूप से प्रकट होतीे हैं । यह मानव मन की कलात्मक रमणीय कलापूर्ण अभिव्यक्ति है । मनुष्य की सष्टि से लेकर अब तक जितना भी ज्ञान और अनुभव सृजित हुआ वह सारा का सारा भंडार साहित्य ही है । साहित्य शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के सहित शब्द से हुआ है । जिसके दो अर्थ हेैं साथ और समुदाय । कुछ साहित्यकारों ने साहित्य को इस प्रकार परिभाषित किया है । जैनेंद्र कुमार ‘‘साहित्य सच्चिदानंद की खोज एवं प्यास का प्रत्यर्पण है ।‘‘ महात्मा गॉंधी जी ‘‘साहित्य वह है जिससे चरस खींचता हुआ किसान भी समझ सके और खूब पढ़ा लिखा भी समझ सके।‘‘ रामचंद्र शुक्ल के अनुसार साहित्य जन की चितवृत्ति का संचित प्रतिबिंब है।‘‘

                             महान् साहित्यकारों के अभिप्राय से यह प्रस्फुटित होता है कि साहित्य समाज का जीवन है। साहित्य समाज के उत्थान-पतन का साधन है। साहित्य के उन्नत से समाज का उन्नत ओैर साहित्य के पतन से समाज पतन की ओर जाता है । साहित्य वह आलोक है जो देश को अंधकार रहित, जाति मुख को उज्ज्वल और समाज के प्रभाहीन नेत्रों को संप्रभ रखता है। साहित्य सबल मनुष्य को बल, सजीव जाति का जीवन, उत्साहित मनुष्य में उत्साह, पराक्रम जाति में पराक्रम साहसी व्यक्ति में साहस और कर्तव्य परायण व्यक्ति में कर्तव्य का संचार करता है ।

                        साहित्य वह कसौटी है जिस पर किसी भी जाति की सभ्यता कसी जा सकती है । असभ्य जातियों में प्रायः साहित्य का अभाव देखा जाता है । इसलिए उनके पास वह संचित संपत्ति नहीं होती जिसके आधार से अपने वर्तमान ओैर भावी संतानों में वह स्फूर्ति भर सके । जिससे लाभ उठाकर सभ्य जाति समुन्नत सोपान पर आरोहण करती है। यही कारण है कि उनका जीवन प्रायः ऐसी परिमित परिधि में बद्ध होता है। जो उनके देशकाल के अनुकूल नहीं बनने देता और न हीे उनके परिस्थितियों का यथार्थ ज्ञान देता है। जिसको अनुकूल बनाकर वे संसार के क्षेत्र में अपने को गौरंन्वित बना सके ।

                        आज समाज में जो भी जातियॉं अवन्नति के गर्त में गिर रही हैं उनको देखने से यह ज्ञात होता हेै कि उनके पतन का एक मात्र कारण उनका वह साहित्य ही है जो समयानुसार अपनी प्रगति की न ही अपने को देशकाल के अनुसार बदल सका । कवींद्र रवींद्र जी कहते हेै कि ‘सहित शब्दों से साहित्य की उत्पत्ति है, अतएव धातुघत अर्थ करने पर साहित्य शब्द में मिलन का एक भाव दृष्टिगोचर होता है । वह केवल भाव का भाव के साथ, भाषा का भाषा के साथ, ग्रंथ का ग्रंथ के साथ मिलन है, यही नहीं वरन् यह बतलाया है कि मनुष्य के साथ मनुष्य का , अतीत के साथ वर्तमान का, दूर के साथ निकट का अत्यंत अंतरंग योग साथ है। जिस देश मेें साहित्य का अभाव है, उस देश के लोग सजीव बंधन में बंधे नहीं होते हैं । ‘‘1

                        साहित्य अपने ज्ञानामृत से समाज और संस्कृति केा एक सार्थक दिशा देने का सशक्त पर्याय है । साहित्य जब पवित्र गंगा जैसी बहती है तो समस्त जन इससे लाभान्वित होते हेैं । और यह मानव की बुद्धि और आत्मा को निर्मल करती है । किसी भी काल के साहित्यिक अध्ययन से हम तत्कालनीन मानव जीवन के रहन-सहन व अन्य गतिविधियों को आसानी से जान सकते हैं ।

                        मानव समाज का अंग है। साहित्य और समाज एक दूसरे के पूरक हैं । साहित्य समाज का दर्पण है। आदिकाल से लेकर अब तक साहित्य ने मनुष्य जीवन को सदैव ही प्रभावित किया है। साहित्य मानव जीवन के उत्थान व चारित्रिक विकास में निरंतर सहायक होता है। साहित्य से मानव मस्तिष्क, मजबूत बनता है साथ ही वह उन नैतिक मूल्यों को अपने जीवन में उतार सकता हेै, जो उसे महानता की ओर ले जाते हैं । यह साहित्य की ही अद्धभुत व महान् शक्ति है जिससे समय-समय पर मनुष्य के जीवन में ़क्रातिकारी परिवर्तन देखने को मिलते हैं । साहित्य ने मनुष्य की विचारधारा को एक नई दिशा प्रदान की है । दूसरे शब्दों में मनुष्य की विचारधारा को परिवर्तित करने केलिए साहित्य का ही आश्रय लेना पडता है ।साहित्य के अध्ययन से आधुनिक युग ही नहीं प्राचीन युग के बारे में अपनी जिज्ञासा को पूर्ण कर सकते हैं । साहित्य अध्ययन से मानव जीवन संबंधी समस्त जानकारी प्राप्त कर तत्कालीन समाज को समुन्नत बना सकते हेेैं ।

                         मानव जीवन में साहित्य का अपूर्व स्थान है । साहित्यकार अपने जीवन में जो भी दुःख, अवसाद, कटुता, प्रेम, स्नेह, वात्सल्य, दया आदि का अनुभव कर उन्हीं अनुभवों को वह साहित्य में चित्रित करता है । यही नहीं वह जिस समाज में निवास करता है,उस वातावरण का प्रभाव उसके साहित्य पर पड़ता है । सामाजिक प्रयोजनों को दृष्टि में रखकर ही साहित्य सृजन किया जाता है । आज का युग वैज्ञानिक युग है । मानव डिजिटल युग में निवास कर रहा है। किसी काम का विलंब उसे कतई पसंद नहीं है । पलक झपटते ही काम को निपटाना चाहता है । मानव जीवन यांत्रिक बनता जा रहा है। मनुष्य मशीनों का आदी बन चुका है । विज्ञान मानव जीवन को सुविधाएं प्रदान कर उसे सुखी बनाता है । पर साहित्य मानव जीवन को सुंदर एवं अनुशासित बनाता है । अर्थात साहित्य सृजन एवं पठन से मानव में नैतिक मूल्यों की वृद्धि होती है । यही अनुशासन एवं नैतिक मूल्य मनुष्य को सदाचार भरी जिंदगी जीने की राह दिखाती है।

                         साहित्य से अभिभूत होकर मनुष्य का हृदय उद्भावनाओं से प्रभावित होता है । साहित्य बिछडे हुए मन को सांत्वना देता है । बडे़ बडे़ महापुरूषों की जीवनी हमें इसलिए पढ़ने केलिए कहते हैं ताकि हम उन महानुभावों के सत्चरित्र को पढ़कर, समझकर जीवन में कुछ सीख सकें । साहित्य हममें अच्छे संस्कार जगाता है । मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकताए रोटी, कपडा़, और मकान के साथ -साथ साहित्य पठन भी जरूरी है । शारीरिक स्वास्थ्य केलिए जिस तरह संतुलित आहार का होना आवश्यक है, उसी तरह मस्तिष्क के खाद्य केलिए अच्छे साहित्य का पठन भी अत्ंयत आवश्यक है । मस्तिष्क का बलवान एवं शक्तिशाली होना अच्छे साहित्य से ही संभव है ।

                       हर भाषा का अपना साहित्य होेना उस भाषा की मर्यादा का सूचक है । इसी संदर्भ में महावीर प्रसाद द्विवेदी जी कहते हैं कि ‘ज्ञान राशि के संचित कोश का नाम ही साहित्य है । सब तरह के भावों को प्रकट करने की योग्यता रखनेवाली और निर्दाेष होने पर भी यदि कोई भाषा अपने निज का साहित्य नहीं रखती तो वह रूपवती भिखारिन की तरह कदापि आदरणीय नहीं हो सकती । उसकी शोभा, उसकी श्री संपन्नता, उसकी मान मर्यादा उसके साहित्य पर ही अवलंबित रहती है ।‘

                        मानव अगर अपने जीवन को सुसभ्य, स्वास्थ्य और सुंदर बनाना चाहता है तो, उसे जरूर अच्छे साहित्य का पठन एवं निर्माण करना चाहिए । साहित्य देश की संस्कृति का वाहक है । साहित्य को पढ़कर हम तत्कालीन परिस्थितियों का समझ सकते हैं । साहित्य वह शक्तिमान ओैषधि है जो मुर्दों को भी जिंदा कर सकती है । इसे साहित्य के बल पर देश में आजादी की लडाइयॉं लडी गयी । आज जो हम आजादी का फल भुगत रहे हैं उसके नींव हमारे साहित्य में ही हैं । आज जिधर देखो उधर शक्ति स्वतंत्रता की चर्चा हो रही है तो यह साहित्य की ही देन है ।

                          साहित्य के पठन एवं निर्माण से इतने लाभ होने पर भी आज दुर्भाग्यवश मानवजाति साहित्य पठन से दूर चला जा रहा है । आज हम किताबें पढ़ना ही जैसे भूल गये हेैं मशीनों पर निर्भर होकर अपनी याददाश्त को खोते जा रहे हैं । एक समय था हम अपनी खेैर समाचार जानने केलिए चिट्टियॉं लिखा करते थे । व्यक्तियों में अब पहली वाली रूचि नहीं रहीं । मनुष्य में सहृदयता, सद्भावना को लोप होता जा रहा है । उसमें कला, संस्कृत और साहित्य के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं है । वह भागदौड भरी जिंदगी में पडकर अपने अंदर छिपी कलात्मकता को भूलता जा रहा है । देश की उन्नति हर हाल में जरूरी है । पर उससे भी ज्यादा मानव को स्वस्थ्य मन की वृद्धि जो कि सिर्फ अच्छे साहित्य से ही संभव है । क्योंकि देश का अर्थ मनुष्य से ही है । साहित्य मनुष्य का सच्चा साथी एवं मार्ग निर्देशक है क्योंकि वह मानव के जीवन को समद्ध एवं सुंदर बनाता है ।

Dr.T.GOVINDAMMA,

PRINCIPAL,GOVERNMENT DEGREE COLLEGE,
TEKKALI, SRIKKAKULAM DISTRICT,ANDHRA PRADESH, INDIA

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