आधुनिक नारी – परंपरा और संस्कृति
डा.पी.के.जयलक्ष्मी
हिन्दी विभागाध्यक्ष
संत जोसफ महिला महाविद्यालय
विशाखपट्टनम
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम एवं सर्वाधिक समृद्ध संस्कृति है। अन्य देशों की तुलना में भारत वर्ष में पारिवारिक व सामाजिक जीवन में नारी की भूमिका अत्यंत गौरवप्रद है। वेदकालीन संस्कृति और सभ्यता ने पारिवारिक और सामाजिक स्वस्थ संरचना में नारी को निर्णायक माना-कार्येषु दासी, करणेषु मंत्री, भोज्येषु माता, रूपेच लक्ष्मी , शयनेषु रंभा, क्षमया धरित्री। षट धर्मयुक्ता कुल धर्मपत्नी— कहते हुए मनु ने अपनी धर्मस्मृति में नारी के लिए वांछित लक्षणों का जिक्र किया। घर की चार दीवारी के बाहर नारी की अपनी कोई दुनिया नहीं थी। वह अपने इस सीमित परिवेश में नियमों का पालन करने को अभिशप्त हुई थी।
नारी! तुम केवल श्रद्धा हो,
विश्वास रजत नग पग तल में ।
पीयूष स्त्रोत सी बहा करो,
जीवन के सुदंर समतल में।”
– जयशंकर प्रसाद
प्राचीन युग से ही हमारे समाज में नारी का विशेष स्थान रहा है । हमारे पौराणिक ग्रंथों में नारी को पूजनीय एवं देवीतुल्य माना गया है । सीता, सावित्री, अनसूया, गार्गी आदि अगणित भारतीय नारियों ने अपना विशिष्ट स्थान सिद्ध किया है। तत्कालीन समाज में किसी भी विशिष्ट कार्य के संपादन में नारी की उपस्थिति महत्वपूर्ण समझी जाती थी ।
हमारी धारणा रही है कि –यत्र नार्यस्तु पूजते , तत्र रमन्ते देवता- अर्थात देव शक्तियाँ वहीं पर प्रसन्न रहती हैं जहाँ पर समस्त नारी जाति को प्रतिष्ठा व सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है । कोई भी परिवार, समाज अथवा राष्ट्र तब तक सच्चे अर्थों में प्रगति की ओर अग्रसर नहीं हो सकता जब तक वह नारी के प्रति भेदभाव, निरादर अथवा हीनभाव का त्याग नहीं करता है ।
कालांतर में देश पर हुए अनेक आक्रमणों के पश्चात् भारतीय नारी की दशा में भी परिवर्तन आ गए। नारी की स्वयं की विशिष्टता एवं उसका समाज में स्थान हीन होता चला गया । अंग्रेजी शासनकाल के आते-आते भारतीय नारी की दशा अत्यंत चिंतनीय हो गई । उसे अबला की संज्ञा दी जाने लगी तथा दिन-प्रतिदिन उसे उपेक्षा एवं तिरस्कार का सामना करना पड़ा । राष्ट्रकवि ‘मैथिली शरण गुप्त’ ने अपने काल में बड़े ही संवेदनशील भावों से नारी की स्थिति को यों व्यक्त किया है-
“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी । आँचल में है दूध और आँखों में पानी ।”
विदेशी आक्रमणों व उनके अत्याचारों के अतिरिक्त भारतीय समाज में आई सामाजिक कुरीतियाँ, व्यभिचार तथा हमारी परंपरागत रूढ़िवादिता ने भी भारतीय नारी को दीन-हीन कमजोर बनाने में अहम भूमिका अदा की ।नारी के अधिकारों का हनन करते हुए उसे पुरुष का आश्रित बना दिया गया । दहेज, बाल-विवाह व सती प्रथा आदि इन्हीं कुरीतियों की देन है। आज का युग परिवर्तन का युग है । भारतीय नारी की दशा में भी अभूतपूर्व परिवर्तन देखा जा सकता है । स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् अनेक समाज सुधारकों समाजसेवियों तथा हमारी सरकारों ने नारी उत्थान की ओर विशेष ध्यान दिया है तथा समाज व राष्ट्र के सभी वर्गों में इसकी महत्ता को प्रकट करने का प्रयास किया है । फलत: आज नारी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है । विज्ञान व तकनीकी सहित लगभग सभी क्षेत्रों में उसने अपनी उपयोगिता सिद्ध की है । उसने समाज व राष्ट्र को यह सिद्ध कर दिखाया है कि शक्ति अथवा क्षमता की दृष्टि से वह पुरुषों से किसी भी भाँति कम नहीं है ।
परिवार व अपने करियर दोनों में तालमेल बैठाती नारी का कौशल अत्यंत प्रशंसनीय है। किसी को शिकायत का मौका नहीं देने वाली नारी आज अपनी सामर्थ्य व साहस के बूते पर सफलता के मुकाम तक पहुँची है। शादी के पहले आत्मनिर्भर रहने वाली नारी के जीवन में शादी के बाद अचानक बदलाव-सा आ जाता है। अब उसके लिए अपना करियर व परिवार दोनों ही समान रूप से महत्वपूर्ण होते हैं। इस वक्त यदि करियर के बारे में गंभीरता से नहीं सोचा तो भविष्य अंधकारमय हो सकता है और यदि परिवार की उपेक्षा की तो दांपत्य जीवन। ऐसे में परिवार और कार्यालय में स्वयं को बेहतर सिद्ध करने की वह हरसंभव कोशिश करती है और आदर्श बनकर सबका दिल जीत लेती है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में नारी प्राचीन युग के अभिशप्त जीवन से निकलकर आधुनिक जीवन की प्रतियोगिता और स्पर्धा में श्रेष्ठतम स्थान पाने में समर्थ रही है l बावजूद इसके जब भी कोई महिला अपने कर्मक्षेत्र की लक्ष्मण रेखाओं को लांघकर अपनी पहचान के लिए संघर्ष करती है तो समाज उसे शंका और अविश्वास की दृष्टि से देखता है l उसे ‘ घर तोड़ने वाली ‘ या ‘ परिवार तोड़ने वाली ‘ जैसी उपमाओं से विभूषित करता है l निश्चित रूप से नारी ही संस्कृति की सच्ची संवाहिका होती है। माँ, बहन, भाभी, पत्नी और पुत्री सखी, और शिक्षिका इस प्रकार नारी के अनेक आयाम हैं। हर हैसियत में वह उत्तम संस्कारों व मूल्यों को यथा संभव दूसरों के दिलोदिमाग में उतारने की चेष्टा करती है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि नारी के कारण ही देश –विदेशों में हमारी संस्कृति की रक्षा हो रही है। भारतीय नारी के प्रति पाश्चात्य देशों में गौरव और सद्भाव देखते ही बंनता है।आचार-विचार, रीति रिवाज, खानपान,अध्यात्मिकता, मानवीय मूल्य, संस्कार, पहनावा,अच्छी आदतें आदि नारी के जरिये पीढ़ी दर पीढ़ी सीख कर धन्य हो रही है। ध्यातव्य है कि आधुनिक नारी पढ़ी लिखी और नौकरी पेशा होते हुये भी अपनी संस्कृति का विस्मरण नहीं कर रही है। विरासत से सीखी समझी संस्कारों का अद्भुत ढंग से अनुपालन करनेवाली अनेक सुशील व उच्च पदासीन नारियों को हम आज भी देख सकते हैं और उनका आदर्श ग्रहण कर सकते हैं। लेकिन यत्र तत्र वैसी स्त्रियों की भी कमी नहीं है कि जो विदेशी संस्कृति का अंधानुकरण करते हुये अपनी संस्कृति का हनन करने पर तुली हैं। पाश्चात्य संस्कृति के मोहपाश में विवेक खो बैठी ये तथाकथित आधुनिक स्त्रियाँ समस्त नारी लोक में कलंकित हैं। फैशन की होड में तथा सौन्दर्य प्रदर्शन में स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने हेतु न जाने वे कैसे कदम उठा रही हैं?भगवान ही जाने!!
आज फिल्म उद्योग में कई अभिनेत्रियाँ हैं जो सोचती है कि महज अंग प्रदर्शन से वे दर्शकों के बीच अधिक लोकप्रिय हो सकती है इसलिए वे सामाजिक एवं सांस्कृतिक मर्यादा को लांघकर अंगप्रदर्शन करती है l मॉडलिंग के क्षेत्र में तो स्थिति और भी बदतर है l मॉडिफाइड कल्चर का यह स्वरुप देश के उच्च संभ्रांत परिवारों में ही नहीं बल्कि मध्यमवर्गीय परिवारों में भी देखने को मिल रहा है l टीवी , सिनेमाओं द्वारा परोसे गए आकाशीय सपनों को साकार करने के लिए लड़कियाँ कुछ भी करने को तैयार रहती है l यह परिदृश्य वास्तव में आधुनिक नारीवाद की उपादेयता पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह हैं l
बच्चों में आज जो संस्कृति घर कर रही है उसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार माँ ही होती है। बच्चों को अगर अपनी मातृभाषा में शिक्षा दी जाए तो पाश्चात्य संस्कृति उन पर हावी नहीं होगी। बच्चे को सही शिक्षा माँ द्वारा ही मिल पाएगी। बच्चे का पूर्ण विकास माँ पर निर्भर करता है। इसका ये अर्थ नहीं कि नारी का घर से बाहर निकलना गलत है या पढना गलत है। पाश्चात्य देशों में नारी के पास पैसा मिल जाएगा पर सुख, संपत्ति, इज्जत नहीं मिलेगी। एक लङकी को अगर कहा जाए कि पूरे कपङे पहना करो तो वो इसे अपना अपमान समझती है। जबकि एक इन्सान की इज्जत कपङों से ही होती है। एक पुरुष कभी आधे कपङे पहनकर बाजार या कार्यालय नहीं जाता पर एक स्त्री जाती है। उन छोटे कपङों में वह खुद को दूसरों की नजरों में आकर्षक दिखने के लिए पहनती है ना कि सुरक्षा के लिए। है। आधुनिक शिक्षा के बहकावे मेँ आकर उसे अपने नारीत्व को बलिदान न देना है। अपने आवरण के द्वारा ही अपनी योग्यता प्रदर्शित करनी है ना कि आवरण हटाकर।
भारतीय नारी आदिकाल से समाज में अपने दायित्व का सफलतापूर्वक निर्वहण करते आयी हैं। समाज की दशा और दिशा निर्धारण में स्त्रियों का अहम् योगदान होता हैं।
स्त्रियां शक्ति का स्वरूप है, समस्त विश्व की सृजनकर्ता हैं. विद्वता, ऐश्वर्य और शक्ति स्वरूपा महिलाओं को उनके वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कराना है।
तुमने जन्म लिया है धरती के उद्धार हेतु /मानव को मानवीयता देने हेतु /
संसार को दया, प्रेम व करुणा देने / संसार को स्वर्ग सा मनमोहक बनाने।
कभी माँ बनकर अपने बच्चे के आँसू पोंछती हो /कभी बहन बनकर भाई को संस्कार सिखाती हो
कभी पत्नी बनकर पति को धर्म सिखाती हो/तो
कभी बेटी बनकर पिता को चेतना आंदोलित करती हो।