TEJASVI ASTITVA
MULTI-LINGUAL MULTI-DISCIPLINARY RESEARCH JOURNAL
ISSN NO. 2581-9070 ONLINE

आधुनिक हिन्दी साहित्य में मानव-मूल्य : जी. त्रिवेणी

आधुनिक हिन्दी साहित्य में मानव-मूल्य
जी. त्रिवेणी
आरंभ से ही मानव सुविधापूर्वक जीवन यापन करने के लिए कुछ नियमों का निर्धारण करता है, जो सार्वभौमिक और सार्वकालिक होते है। किन्तु इनमें समयानुसार थोड़ा बहुत परिवर्तन होता रहता है। इनका विकास, विभिन्न परिवेश, परिस्थितियों में होता है, इसलिए प्रत्येक देश के धर्म, दर्शन, संस्कृति में भिन्नता दिखाई पड़ती है किन्तु सर्वत्र ही मूल्यों के निर्धारण में मानव के उत्थान-पतन और कल्याण की भावना मूल में रहती है, जैसा कि प्रसुद्ध समाजशास्त्री सुड्स ने लिखा है – “मूल्य” दैनिक जीवन में व्यवहार को नियंत्रित करने के सामान्य सिद्धान्त हैं। मूल्य न केवल मानव व्यवहार को दिशा प्रदान करते हैं, बल्कि वे अपने आप में आदर्श और उद्देश्य भी हैं।
सभी प्रकार के मूल्य मानव-जीवन से संबंधित होते हैं । इसलिए मूल्यों को मानव-जीवन से अलग रखकर नहां देखा जा सकता है, क्योंकि समाज के साथ ही मूल्यों का आविर्भाव और विकास होता है। अत: जितना पुराना समाज होता है, मूल्य भी उतने ही पुराने होते हैं । कहने का आशय है कि सभी मूल्य मानव द्वारा निर्मित होते हैं और समयानुसार उसी के द्वारा उनकों अस्वीकार कर दिया जाता है । मानव ही सभी प्रकार के मूल्यों के केंद्र में होता है इसलिए सभी मूल्यों को हम मानव मूल्य मान सकते हैं।
मानव-मूल्य के अंतर्गत-व्यक्तिगत मूल्य, सामाजिक मूल्य, आर्थिक मूल्य, राजनैतिक मूल्य, दार्शनिक मूल्य, धार्मिक मूल्य, नैतिक मूल्य और सौंदर्यपरक मूल्यों की गणना की जा सकती है।
मानव-मूल्य : वर्गीकरण सामान्यत: व्यक्ति और समाज के आधार पर मूल्यों को दो भागों में बाँटा जा सकता है। व्यक्तिगत मूल्य और सामाजिक मूल्य। व्यक्तिगत मूल्य इन्द्रीय बोध से संबंधित और भावात्मक होते हैं जो व्यक्ति विशेष तक सीमित रहते हैं। सामाजिक मूल्यों में रूढ़ियाँ, सामाजिक स्थितियाँ, सामाजिक परंपराएँ, उत्सव आदि आते हैं।
भारतीय और पाश्चात्य चिंतकों में भौतिकता और आध्यात्मिकता को लेकर मतभेद है क्योंकि पश्चिमी लोग भौतिकता को ज्यादा महत्व देते हैं और भारतीय आध्यात्मिकता को। पाश्चात्य चिन्तक ‘प्यू’ ने मूल्यों को समय, आवश्यकता और स्थिति के अनुसार श्रेष्ठ या गौण माना है और मानव के निर्णय, व्यवहार और बौद्धिक विकास को मूल माना है । उनका मूल्यों का वर्गीकरण कुछ इस प्रकार है- (क) स्वनिष्ठ मूल्य अथवा शारीरिक मूल्य(सैलफिस वैल्यूज) । (ख) सामाजिक मूल्य(सोशल वैल्यूज) । (ग) बौद्धिक मूल्य(इंटलेक्चुअल वैल्यूज) ।
भारतीय और पाश्चात्य विचारकों का अध्ययन एवं मनन कर हिन्दी में डॉ. धर्मवीर भारती ने नवीन मूल्यों में मानव-स्वतंत्रता की चरम सत्ता मानते हुए मूल्यों में परिवर्तनशीलता को रेखांकित किया है, जबकि डॉ. गोविन्दचंद्र पांडे ने मूल्यों की उपयोगिता, आदर्श और नीति के आधार पर समझने का प्रयत्न किया है। डॉ. रमेश कुंतल मेघ ने कबीलाई मूल्यों के साथ मार्क्सवादी चिंतन को ग्रहण कर सौंदर्य-बोधात्मक मूल्यों को श्रेष्ठ माना है।
कमलेश्वर : कमलेश्वर मूलत: कहानीकार हैं किंतु उन्होंने अपने आपको सशक्त उपन्यासकार के रूप में भी स्थापित कर अपनी कृतियों में, मध्यवर्गीय जीवन के अच्छे-बुरे, सच्चे-झूठे अनुभवों का यथार्थपरक चित्रण किया है। वे नयी दृष्टि और नए मूल्यों को महत्व देते हैं तथा उन्हें जीवन में, नवीन संदर्भों की तलाश भी है। जिससे उन्होंने अकेलेपन, अजनबीपन, भटकन तथा अन्य तनावपूर्ण मन:स्थितियों का सफल चित्रण किया है। उनके उपन्यासों में ‘डाक बंगला'(1961), ‘बदनाम गली’, ‘एक सड़क सतावन गलिया'(1961), ‘तीसरा आदमी'(1964) प्रमुख रहे हैं।
कमलेश्वर ने व्यक्ति की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, वैयक्तिक, नैतिक समस्याओं को बड़े ही मार्मिक ढंग से पेश किया है। मध्यवर्गीय जीवन के यथार्थ को नवीन दृष्टि से देखा तथा नवीन जीवन को खोजा इनमें व्यक्ति की भटकन, अकेलेपन तथा अन्य मन:स्थितियों का सटीक चित्रण हुआ है।
‘डाक बंगला’ की ‘इरा’ जीवन भर भटकने के बाद कहीं भी स्थापित नहीं हो पाती और अपने आप में डाक बंगला और मुसाफिर दोनों बन जाती है। विमल बतरा, सोलंकी, डॉक्टर, तिलक, सभी पुरुष उसके जीवन में डाक बंगले के मुसाफिर की तरह आते हैं, कुछ दिन ठहर, चले जाते हैं। नारी की यह अजीब विडंबना है कि पुरुष प्रधान समाज में उसका अकेले रह पाना संभव नहीं है। नारी की मानसिकता आज भी परंपरागत संस्कारों, धार्मिक, सामाजिक, नैतिक मूल्यों से जुड़ी हुई है जिनसे पुरुष हमेशा उनका शोषण करता है, उसे बिस्तर की सज्जा हर कोई बनाना चाहता है, पर कोई उसे घर नहां देता, पत्नी पद नहीं देता। ‘ इरा ‘ इस संबंध में कहती है, ” यह तुम्हारी दुनिया बहुत कमीनी है। यहाँ औरत बगैर आदमी के रह ही नहीं सकती चाहे उसके साथ पति हो, भाई हो या बाप हो। कोई न हो तो नौकर ही हो,पर आदमी की छाया जरूर चाहिए, इसलिए हर लड़की कवच ढूँढती है। इस कवच के नीचे वह अच्छा या बुरा हर तरह का जीवन बाता सकती है। उसे पहनने के लिए जैसे एक साड़ी चाहिए, वैसे ही एक कवच भी चाहिए।” समाज में सांप्रदायिकता, जातीयता की संकीर्ण भावना से समाज विघटन के कगार पर खड़ा है, हर जगह, हर क्षेत्र में इसका जहर फैल चुका है, जिससे लोग एक-दुसरे के शक और घृणा की नजर से देखते हैं। हर व्यक्ति अपनी जाति और धर्म को श्रेष्ठ साबित करने पर तुला है और दूसरे को निम्न। इस संदर्भ में लेखक के विचार हैं-” सरकारी स्कूल को छोड़कर कौन-सा स्कूल है जिले में जो किसी जाति विशेष के आधिपत्य में न हो। ब्राह्मणों के अपने स्कूल हैं, कायस्थों के अपने, अहीरों के अलग, अग्रवालों के अलग, हर जाति का सर्प फन फैलाये बैठा है।” भारतीय समाज में जाति व्यवस्था का बुरा परिणाम शादी-विवाह तक सामित नहीं है बल्कि वह अपनी जड़े शैक्षिक, नैतिक, आर्थिक, राजनीतिक क्षेत्रों में बुरी तरह जमा हो चुका है।
रघुवीर सहाय की कविताओं का मूल्यगत विवेचन में वयक्तिक जीवन मूल्यों, राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, नैतिक मूल्यों, आर्थिक , सांस्कृतिक मूल्यों की अभिव्यंजना की दृष्टि से रघुवीर सहाय की काव्य-कृतियों का समग्र अनुशीलन प्रस्तुत है व्यक्ति की महत्ता और उसकी प्रतिभा को पहचानने की, कवि ने मांग की है आशावादी होने और दुखियारे लोगों के प्रति संवेदनशील होने की मांग कर, प्रेम के समर्थन कवि ने शाश्वत मूल्य के रूप में किया है और इन कविताओं में जीवन की श्रेस्ठ्ता को साधन के बल पर निरूपित करने का संदेश दिया । शोषण और अत्याचारों का खंडन कर नव समाज की स्थापना करने के पक्ष में कवि ने प्रबल विचार व्यक्त किए । साम्यवाद और गांधी वाद के समर्थक कवि रघुवीर सहाय ने नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने और मूल्यों की भित्ति पर लोकतन्त्र को सुरक्षित रखने के पक्ष में अपने विचार प्रकट किए । इस आध्याय में कवि रघुवीर सहाय की मूल्य-दृष्टि का समग्र अध्ययन प्रस्तुत है ।
राजेन्द्र यादव: नये कहानीकारों में राजेन्द्र यादव का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने अपने उपन्यासों में मध्यवर्ग की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, नैतिक, व्यक्तिगत समस्याओं का चित्रण ईमानदारी के साथ, जीवंत रूप में किया तथा जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण प्रगतिशील है। अपने उपन्यासों में उन्होंने स्त्री-पुरुष के बनते बिगड़ते संबंधों, प्राचीन रूढियों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण, परंपरागत-मूल्यों के ह्रास तथा मानव-मूल्यों की स्थापना का प्रयत्न किया है। स्त्री-पुरुष संबंध आज जिस दौर से गुजर रहे हैं, उसका यथार्थ चित्रण हमें राजेन्द्र यादव के उपन्यासों में मिलता है। उनके उपन्यासों में ‘ उखड़े हुए लोग’ (1957), ‘ शह और मात’ (1959), ‘ सारा आकाश’ (1960), ‘ अनदेख अनजान पुल’ (1963), ‘ कुलटा’ (1969) महत्वपूर्ण हैं।
‘सारा आकाश’ में मध्यवर्गीय परिवार का चित्रण किया गया है। उसमें एक शिक्षित युवक को प्रतीक मानकर आज के समाज की वास्तविक स्थति को उभारने का प्रयत्न किया है।
‘सारा आकाश’ में जिस परिवार का चित्रण है, उसमें पारिवारिक मूल्यों को ह्रास के पश्चात भी इस मृत परंपरा को घसीटा जा रहा है। समर कमाता नहीं तो उसके तथा उसकी पत्नी के साथ किसी भी सहानुभूति नहीं है। इस संबंध में शिरीष तो साफ कह देता है – “इस संयुक्त परिवार की परंपरा को तोड़ना ही होगा। अब आपके लिए ही कहूँ कि अगर खुद जिंदा रहना चाहते हैं या चाहते हैं कि आपकी पत्नी भी जिंदा रहे तो इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं है कि अलग रहिए। जैसे भी हो अलग रहिए।” लेखक संयुक्त परिवार परंपरा को तोड़कर एकल पारिवारिक व्यवस्था का समर्थक है। संयुक्त परिवार में कोई भी अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं कर पाता, उसके मन में सदैव एक कुंठा-सी रहती है। इस संबंध में उपन्यास का पात्र समर कहता है – “हाय मेरी वे सारी महत्वकांक्षाएँ, कुछ बनकर दिखलाने के सपने, अब यों ही घुट-घुट कर मर जाएंगे। रात-रात भर नींद और खून देकर, पाले हुए वे सारे भविष्य के सपने अब दम तोड़ देंगे।”
उनके पात्र कहीं भी आरोपित नहीं लगते बल्कि वे हमारे अपने जीवन का अंग लगते हैं। कही भी उन पर किसी आदर्श को लादा नहीं गया। शिरिष भारतीय इतिहास की नैतिकता की पुनर्व्याख्या करता हुआ कहता है – ” करोडों व्यक्तियों के हजारों सालों के इतिहास से निकाले गए दो नाम सीता और सावित्री। मैं पूछता हूँ कि सीता का नाम लेते हमारा मस्तिष्क शरम से झुक नहीं जाता? निर्दोष नारी के कितने बड़े कलंक और कितनी बड़ी अमानुषिक यातना को हम लोग झंड़ों पर काढ़ कर पूजते हैं।” नैतिक मूल्य अपने लिए कुछ और हो और दूसरे के लिए कुछ और तो अपनी सार्थकता खो देते हैं। आज कोई भी दूसरे के पत्नी के साथ तो घूम सकता है, लेकिन अपनी पत्नी को दूसरों के साथ नहीं देख सकता। वर्तमान समय में प्रेम, आर्थिक समस्याओं के कारण अपना महत्व खोता जा रहा है। आर्थिक मूल्यों से उसकी चमक प्राय: समाप्त होती जा रही है – ” इतनी फुरसत आजकल किसे है कि दिन-रात बस प्रेम को बैठा गाया करे? जीवित रहने के संघर्ष ने सब कुछ उड़ा दिया है। यह जो फुरसत और मेरी शब्दावली में पेट भर लोगों के किस्से हैं। अब तो पहली तारीख की राह ज्यादा देखी जाती है।”
अत: वे मानवीय मूल्यों को वर्तमान मानव के संदर्भ में देखते हैं जो अपनी सार्थकता, उपयोगिता खो चुके हैं, उनसे मुक्त होने के लिए प्रेरित करते हैं। उनके पात्र पारंपरिक मूल्यों, रूढ़ियों को तोड़ने और उन्हें उखाड़ फंकने के लिए हर समय तैयार रहते हैं।

जी. त्रिवेणी
शोधार्थिनी, हिन्दी विभाग
आंध्र विश्वविद्यालय
विशाखापट्टणम-03
दूरभाष: 08886080406
ई-मेल: [email protected]

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