एस. सूर्यावती
सह अचार्या,
शासकीय महिला महाविद्यालय, मर्रिपालेम, कोय्यूर मंडल, विशाखपट्टणम।
मूल्यों का क्षेत्र अत्यंत व्यापक हैं।मूल्य सामाजिक जीवन का एक अवश्यक अंग हैं। अर्थात सामाजिका संरचना मूल्यों पर निर्भर हैं। मुल्यों से समाज में सुरक्षा, शांति एवं प्रगति होती हैं और अव्यवस्था रुक जाती हैं।अतः मूल्यों के अभाव में समाज व्यवस्थित नहीं चल सकता। मूल्यों के द्वारा मानवीय क्रिया-कलापों, सामाजिक अम्तः क्रियाओं तथा व्यवहारों को नियंत्रित किया जाता हैं। अर्थात ये मूल्य मानदंड होते हैं। इन मूल्यों से व्यक्ति समाज में सम्मान पाता हैं। दिनकर जी का कहना है कि ”मूल्य वे मान्याताएँ हैं मार्गदर्शक ज्योति मानकर सभ्यता चलती रही हैं।“ मूल्य सामाजिक संबंधों को संतुलित करके सामाजिक व्यवहारों में एकरूपता स्थापित करते हैं। मूल्य मानवता की कसौटी हैं। जीवन को दिशा देकर उसके योग्य-अयोग्य पर विचार व्यक्त करने के लिये मूल्य अत्यंत आवश्यक हैं।
आज का युग विज्ञान का युग हैं। सभी क्षेत्रों में वैज्ञानिकता और तार्किकता ने प्रवेश कर लिया हैं। फिर भी समाज में मूल्यों का महत्व अनिर्वचनीय हैं। भारतीय संस्कृति की अधारशिला मानव मूल्यों पर ही टिकी हुई हैं। मूल्य समाज के सदस्यों की आंतरिक भावना पर आधारित होते हैं। वर्तमान में तीव्र गति से आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में परिवर्तित होताा युग मूल्यों को भी प्रभावित कर रहा हैं। मूल्य काल परिस्थिति सापेक्ष होते हैं। भौतिक जीवन में सफलता प्रप्त करने हेतु पारंपरिक मूल्यों की उपेक्षा की जाती हंै। मूल्यों के पतन से अनेक नई समास्याओं ने जन्म लिया हैं। मूल्यों के संवर्धन से ही इन समस्याओं का उन्मूलन किया जा सकता हैं।
साहित्य और समाज का घनिष्ठ संबंध हैं। साहित्य जीवन की सही और सार्थक अभिव्यक्ति हैं। शास्वत मूल्य सत्यं, शिवं, सुंदरम तीनों की सामंजस्यपूर्ण प्रतिष्ठा से ही साहित्य की संतुलता निर्भर रहती हैं। साहित्यकार अपनी सृजन कला से व्यावहारिक धरातल पर जीवन और जीवन मूल्यों की व्याख्य करता हैं।रचना समकालीन समाज से अछूती नहीं रह सकती। रचना समय के मूल्यों की सामाजिक दस्तावेज होने के कारण इसे व्याख्याति करती हैं। सामाजिक जिंदगी से रचनाकार इतना ताल मेल बैठा लेता हैं कि उसे यही आभास होता है कि ये सभी कष्ट स्वयं उसके हैं। जितनी ते से उसकी चेतना उसे अंदर से झकझोरती हैं रचना उसी अनुपात में जीवन से जुड़ती हैं। अपने युग और समाज से रचनाकार प्रभावित ही नहीं होता बल्कि सामान्य जनता की तरह एक साक्षी हातिा हैं क्योंकि उसका अनुभव व्यक्तिगत नही होता। इसलिये समाज की हर परिस्थिति उसके लिए उसकी रचना विषय बन जाता हैं कि रचना विषय बन जाता हैं। उपन्यास आधुनिक साहित्य की सबसे प्रिय और ससक्त विधा रही हैं क्योंकि इसमें सभी मानवीय मूल्यों की सृजनात्मक शाक्ति को व्यक्त करने की क्षमता दिखाई देती हैं। उपन्यासों ने समाज और व्यक्ति ही आन्तरिक अनुभूतियों की गूँज सुनई देती हैं।
स्वतंत्रता के बाद देश की राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों में अनेक परिवर्तन हुए। सांप्रदायिकता के कारण युग से स्वीकृत मानवीय मूल्यों का हृास हो गया। कृष्णा अग्निहोत्री का कहना है कि ”मानव के सामने नई समस्याओं ने एक नई सामजिक स्थिति संवार कर रख दी। वैज्ञानिक आविष्कार, वर्षों की गुलामी और उसके प्रभाव ने हमारे सामाजिक रहन-सहन और जीवन मूल्यों को झकझोर डाला।“
नारी की स्थिति में परिवर्तन हुए। पारिवारिक संबंधों की नींव हिल गई। पति-पत्नी जैसे पवित्र रिश्तों में भी दरारें आ गई। जाति एवं वर्ण व्यवस्था में परिवर्तन हुए। परंपरागत अस्थाएँ हिल गईं,जिसमें धर्म संस्कृति का मूलभूत अंग न रहकर केवल स्वार्थ सिद्धि का शस्त्र बन गया। प्रत्येक युग में रचनकारों ने सामाजिक विषमताओं से क्षुब्ध होकर आक्रोश प्रकट किया हैं और अपने अनुभवों, अपने विचारों अथवा अपने अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिये अपनी लेखनी उठाई हैं।
सन् 1960 के बाद महिला उपन्यासकारों ने लेखन के क्षेत्र में पूरी ताकत के साथ अपने विचारों को प्रस्ताव किया हैं। पारंपरिक मूल्यों के विघटन को सशक्त अभिव्यक्ति देनेवाले इन महिला उपन्यासकारों ने समाज के सभी वर्गों के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक ओर दार्शनिक पक्षों को विषय वस्तु बनाकर उपन्यासों में उभारने का जो प्रयास किया है, वह सराहनीय हैं।अनेक संवेदनशील पहलुओं को जैसे घुटन, परिवार की टूटन, जीवन संघर्ष को भी कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया हैं।इन लेखिकाओं ने अपने लेखन से मूल्य, मर्यादा, विषमताओं विकृतियों को नये रूप में परिभाषित करने का प्रयास किया हैं। कृष्णा सोबती के ‘मित्रो मरजानी’, ‘यारों के यार’, और ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ मन्नू भंडारी के ‘आपका बंटी’, ‘महाभोज’, उषा प्रियंवदा के ‘रुकोगी नहीं राधिका’, ‘पचपन खंबे चार दीवरें’, मृदुला गर्ग के ‘चित कोबरा’, ‘उसके हिस्से की ध्ूाप’, मैत्रेयी पुष्पा के ‘इदन् मम’, ‘चाक’, ‘अल्मा कबूतरी’, ‘कृष्णा अग्रिहोत्री के ‘टपरेवाले’, ‘बतौर एक औरत इन लेखिकाओं के अलावा ममता कालिय, राजी सेठ, नासिरा शर्मा, मृणाल पांडे, सूर्यबाला, शशिप्रभा शास्त्री, शिवानी, दीेप्ति खंडेलवाल, सुनीता जैन, कुसुम अंसल, प्रभा खेतान, मालती जोशी, मेहुरुन्निसा परवेज, निरुपमा सेवती, चंद्रकांता सैनरेक्सा इत्यादि लेखकों ने वैयक्तिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक मूल्यों की अभिव्यक्ति सशक्त ढंग से किया हैं। नये और आधुनिकता के नाम पर हम अपनी सांस्कृतिक चेतना एवं मानवीय मूल्यों को पीछो छाडते चले आ रहे हैं। मानव जीन्वन की सार्थकता मूल्यों में निहित हैं। मूल्य मानव, समाज, राष्ट्र में एकता लाने का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। वैयक्तिक स्वर्थपरता से ऊपर उठकर समग्र मानव समाज एवं मानव कल्याणार्थ मूल्यों का संरक्षण और परिरक्षण अवश्यक हैं।महिला उपन्यासकारों ने इस कार्य के लिए सक्षम, सश्रम उल्लेखनीय कार्य किया हैं।